जम्मू, 21 अगस्त (Udaipur Kiran) । सनातन धर्म में भाद्रपद मास की अमावस्या का विशेष महत्व माना गया है। इस दिन वर्ष भर के धार्मिक कार्यों हेतु कुश एकत्र की जाती है, इसलिए इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या या कुशाग्रहणी अमावस्या कहा जाता है। डोगरी भाषा में कुश को दर्भ अथवा दाभ कहा जाता है।
श्री कैलख ज्योतिष एवं वैदिक संस्थान ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत रोहित शास्त्री ने जानकारी दी कि वर्ष 2025 में भाद्रपद अमावस्या तिथि शुक्रवार, 22 अगस्त को प्रातः 11:57 बजे से प्रारंभ होकर शनिवार, 23 अगस्त को प्रातः 11:37 बजे तक रहेगी। इस दौरान तीर्थस्नान, तर्पण, पिंडदान और कुशोत्पाटन करना शुभ माना गया है। यदि शुक्रवार को कुशोत्पाटन संभव न हो, तो यह कार्य शनिवार को प्रातः 11:37 बजे तक किया जा सकता है। इस वर्ष भाद्रपद अमावस्या का व्रत शनिवार, 23 अगस्त को होगा और शनिवार होने के कारण इसे शनिश्चरी अमावस्या भी कहा जाएगा।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पूजा के समय हाथ में कुश अवश्य होनी चाहिए, अन्यथा पूजा निष्फल मानी जाती है। ग्रंथों में दस प्रकार की कुश का वर्णन मिलता है, जिनमें तीक्ष्ण मूल, सात पत्तियों और हरी कुश को श्रेष्ठ माना गया है।
कुश के प्रयोग का महत्व पूजा, ध्यान, ग्रहणकाल और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में विशेष रूप से बताया गया है। मान्यता है कि कुश के आसन पर साधना करने से चित्त स्थिर होता है और आध्यात्मिक बल बढ़ता है। इसके अलावा धन वृद्धि, रोग निवारण और पितृदोष से मुक्ति हेतु भी कुश का प्रयोग किया जाता है।
धर्मग्रंथों के अनुसार पंचक में मृत्यु होने पर कुश से बने पांच पुतले मृतक के साथ अग्नि में समर्पित करना शुभ माना गया है। वहीं, ग्रहण या सूतक के समय अन्न व जल में कुश डालने से नकारात्मक प्रभाव समाप्त हो जाता है।
(Udaipur Kiran) / राहुल शर्मा
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