यह कहानी राजस्थान के छप्पनिया अकाल की है। छप्पनिया अकाल राजस्थान का सबसे खतरनाक अकाल था। इस अकाल में लोगों के शरीर इतने सूख गए थे कि उन्हें बैठने और खड़े होने के लिए खूंटे लगाने पड़ते थे, अनाज चोरी हो जाता था। लोग भूख से मर जाते थे। फिर भी राजस्थान के लोगों ने हार नहीं मानी और अकाल को हरा दिया। आइए आपको बताते हैं कि इस भयानक अकाल की सच्ची कहानी क्या है।
50 डिग्री तक पहुंच जाता था तापमान
इंदिरा गांधी नहर को राजस्थान की भागीरथी कहा जाता है। इसी नहर की वजह से थार का रेगिस्तान हरियाली की चादर ओढ़े हुए है। इस नहर से पहले राजस्थान में पानी की तलाश करना किसी चीज की तलाश करने जैसा था। प्रकृति ने राजस्थान को पानी नहीं दिया था। अगर कुछ दिया भी था तो दूर-दूर तक फैला रेत का समंदर, ऊंचे-ऊंचे रेत के टीले, गर्मियों में चिलचिलाती धूप, धूल भरी आंधी, लू के थपेड़े। मई और जून में तापमान 50-52 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता था।
लोगों के शरीर कांटों की तरह सूख गए थे। लोग अपनी सूखी आंखों से आंसू गिरने का इंतजार करते थे। पश्चिमी राजस्थान में अक्सर अकाल पड़ते थे। अकाल के बारे में एक मशहूर कहावत थी। 'तिजो कुरियो, आठवो काल'। इसका मतलब है कि हर तीसरे साल अकाल पड़ता है और हर आठवें साल भयंकर अकाल पड़ता है। राजस्थान ने कई भयानक अकाल देखे थे। लेकिन सबसे खतरनाक था छप्पनिया अकाल। जिसने लोगों को पेड़ों की छाल खाने पर मजबूर कर दिया था। लोगों के शरीर इतने सूख गए थे कि शरीर की एक-एक हड्डी साफ-साफ गिनी जा सकती थी। शरीर इतना कमजोर हो गया था कि लोगों ने बैठने और खड़े होने के लिए खूंटे तक खोद लिए थे। ताकि वे उनके सहारे बैठ सकें। अपना पेट भरने के लिए बड़े-बड़े राज कर्ज में डूब गए। उस समय भारत पर अंग्रेजों का राज था। एक तरफ अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार था तो दूसरी तरफ अकाल की तबाही थी। लेकिन ऐसी स्थिति में भी हमारे पूर्वजों ने हिम्मत नहीं हारी और अकाल को हरा दिया।
इसका नाम छप्पनिया अकाल क्यों पड़ा?
पश्चिमी राजस्थान को कुदरत ने कोई नदी नहीं दी थी। यह दुनिया का 9वां सबसे गर्म थार रेगिस्तान है। इसलिए लोग पूरी तरह से बारिश के पानी पर निर्भर थे। लेकिन साल 1899 में ऐसा लगा जैसे बादलों ने न बरसने की कसम खा ली हो और उसी साल सबसे खतरनाक 'छप्पनिया' अकाल शुरू हुआ। साल तो 1899 था लेकिन विक्रम संवत 1956 था, इसीलिए इस अकाल को छप्पनिया अकाल कहा गया। लोग रबड़ी खाकर दिन गुजारते थे इतिहास के पन्नों में इसे त्रिकाल भी कहा गया। क्योंकि उस समय भोजन, पानी और पशुओं का चारा भी खत्म हो गया था। अंग्रेजों ने इस अकाल को द ग्रेट इंडियन फेमिन 1899 नाम दिया। साल 1899 में इस रेगिस्तान में बारिश की एक भी बूंद नहीं गिरी। जमीन इतनी सूखी हो गई कि जुताई भी नहीं हो सकती थी। पीने के लिए पानी नहीं था और खाने के लिए अनाज नहीं था। जब अनाज खत्म हो गया तो लोग हर दूसरे दिन अनाज खाने लगे। पेट भरने के लिए रोटी खाने की बजाय लोग रबड़ी खाकर दिन गुजारने लगे।
लोग खेजड़ी की छाल का चूर्ण खाने लगे
जब वह भी खत्म हो गया तो लोग खीरा और तरबूज के बीज खाने लगे। बेर खाकर भूख मिटाते थे। बेर खत्म हो जाने पर लोग बीजों का चूर्ण बनाकर पानी के साथ पीकर पेट भरते थे। गर्मियों में खेजड़ी की फलियों के सूखने पर जो छिलके बनते थे, उन्हें खाकर लोग पेट भरने लगे। धीरे-धीरे जैसे-जैसे दिन बीतते गए, खाने के सारे विकल्प खत्म होने लगे।अब लोग खेजड़ी की छाल का चूर्ण बनाकर पानी के साथ पीने लगे। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए सब कुछ किया लेकिन भूख ने लोगों के शरीर को चूसना शुरू कर दिया। लोग खड़े-खड़े कंकाल बन गए। एक समय ऐसा था जब सोने के बदले कोई अनाज देने को तैयार नहीं था।
सोने-चांदी की जगह अनाज चोरी होने लगा
अनाज की कीमत सोने-चांदी से भी ज्यादा हो गई थी। चोर सोने-चांदी की जगह अनाज चुराने लगे। कुछ लोग तो नरभक्षी भी हो गए। अनाज के लिए लोगों द्वारा अपने बच्चों को बेचने के मामले भी सामने आए। हालात बिगड़ते गए और लोग अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए। लोग दूसरी जगहों पर पलायन करने लगे। गांव खाली हो गए। अकाल में लोगों को भूख से मरता देख कई रियासतों के राजा आगे आए। उनमें से एक थे राव भोपाल सिंह। भोपाल सिंह ने अपना खजाना जनता के लिए खोल दिया।
45 लाख लोगों की जान चली गई
उन्होंने कई जगहों पर भोजन वितरण का आयोजन किया, पीने के पानी के स्टॉल लगाए और लोगों में खिचड़ी और उबले चने बांटे। इतना ही नहीं, जब उनका सारा पैसा खत्म हो गया तो उन्होंने अपने कई गांव अजमेर और ब्यावर के सेठों के पास गिरवी रख दिए। लेकिन समय खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। खजाना खत्म होने के बाद भी उन्होंने अंग्रेजों के सामने भीख नहीं मांगी। इसीलिए उन्हें अकाल का नायक और राजस्थान का महान क्रांतिकारी कहा गया। 40 से 45 लाख लोगों की जान चली गई। एक किसान ने खेजड़ी सांगरी के बदले अपनी पत्नी तक बेच दी।
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