राचीः संघर्ष, पीड़ा,और कुर्बानी की राह चलने वाले शख्सियत का नाम बाबूलाल मरांडी है। बीजेपी का जनाधार बढ़ाने ,सत्ता सुख लेने और दुनिया का सबसे बड़ा दुख अपने पुत्र की अर्थी को कंधा देने जैसे विदारक समय का भी गवाह बाबूलाल मरांडी हैं। नक्सल विरोध कर हैं लगाम थामने और झारखंड की रक्तरंजित जमीन पर विकास का माइलस्टोन खड़ा करने वाले शख्सियत का नाम भी बाबूलाल मरांडी है। चलिए जानते हैं उस शख्सियत को जिसे परायों से ज्यादा अपनो ने दुख पहुंचाया।
ऊबड़ खाबड़ डगर पर बाबूलाल मरांडी
बाबूलाल मरांडी का जन्म 11 जनवरी 1958 को हुआ था। स्कूली पढ़ाई उन्होंने झारखण्ड के गिरिडीह जिले के कोदाईबांक नामक गांव मे की। रांची विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर किया और उसी समय वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। झारखण्ड क्षेत्र के विश्व हिन्दू परिषद का संगठन सचिव भी बने। नक्सली आंदोलन के विरुद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में झारखंड के विकास के पैरोकार हो गए।
1991 में गोविंदाचार्य की नजर पड़ी और उन्हें संघ से बीजेपी में एक खास मकसद के लिए ले आए। तब तो बाबूलाल मरांडी को भी पता नहीं था कि गोविंदाचार्य झारखंड के नायक शिबू सोरेन के विरुद्ध उन्हें राजनीतिक शिकस्त देने लिए चुन लिए हैं। और यह मौका 1991 में ही आ गया। वर्ष 1991 के चुनाव में बाबूलाल मरांडी झामुमो के शिबू सोरेन के विरुद्ध दुमका लोकसभा से लड़े तो जरूर पर हार गए। वर्ष 1996 लोकसभा चुनाव में फिर टकराए और 5000 वोट के बहुत कम अंतर से से हारे।
वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी ने अंततः उन्हें शिबू सोरेन को हराने में सफलता मिली। इतना ही नहीं बाबूलाल मरांडी ने 1999 के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन की पत्नी रूपी सोरेन को दुमका से हराया।
लोकसभा चुनाव में हीरो बने
बाबूलाल मरांडी 1998 के लोकसभा चुनाव में हीरो बन कर उभरे। उन्होंने झारखंड के बड़े दिग्गज नेता शिबू सोरेन को लोकसभा चुनाव में मात दी थी. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में ही 1998 के लोकसभा चुनाव के दौरान एकीकृत बिहार के झारखंड में पड़ने वाले 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। इस जीत ने बाबूलाल मरांडी को राष्ट्रीय स्तर पर एस्टेब्लिश किया था. उनको पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के कैबिनेट में भी जगह मिली थी।
वर्ष 2000 में जब झारखंड विधानसभा का चुनाव हुआ तो झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री बने। लेकिन डोमिसाइल विवाद की वजह से 2003 में उनको सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। यहीं से बाबूलाल मरांडी के विरुद्ध भाजपा में गुटबाजी शुरू हो गई। अपनों के दगाबाजी के कारण नाराज बाबूलाल मरांडी ने 2006 में भाजपा छोड़ दी।
चाचा के बदले खुद गोलियां झेली अनूप ने
गिरिडीह स्थित चिलखारी का फुटबॉल मैदान और 26 अक्टूबर 2007 का वह मनहूस दिन। जब गोलियों की तड़तड़ाहट ने लील थी 20 जिंदगियां और उसमें एक शख्स ऐसा था जिसमें बसती थी बाबू लाल मरांडी की जान। नक्सलियों ने चिलखारी में जो खून की नदी बहाई थी उसमें कुछ कतरा बाबू लाल मरांडी के पुत्र अनूप मरांडी के भी थे। बाबू लाल मरांडी के पुत्र अनूप मरांडी जिसने देखे थे उंगलियों में गिन लिए जाने वाले कुछ ही बसंत। पर उसे नहीं मालूम था कि वह इस धरती पर आया ही था अपने चाचा नुनु मंडल पर अपनी जान कुर्बान करने।
यह असहनीय पीड़ा का समय था!
ये वो समय था जब चिलखारी फुटबॉल मैदान में टूर्नामेंट के अंत होने के बाद करीब 10 हजार की भीड़ सोरेन ओपेरा नामक संथाली जात्रा का आनंद ले रहे थे। इस आनंद में खलल डालने नक्सली पहुंचे और अंधाधुंध गोलियों की बरसात कर दी। हालांकि नक्सली पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी के भाई नुनु मरांडी की हत्या करने आए थे। पर समय के पन्नों पर बाबू लाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी के साथ 20 लोगों की दर्दनाक मौत की कहानी दर्ज होनी थी। यह दीगर कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने घटना स्थल पर पहुंच कर अपनी संवेदना व्यक्त की पर हत्यारे आज भी खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
झारखंड विकास मोर्चा का गठन
और झारखंड विकास मोर्चा नाम से पार्टी बना ली। 2006 से 2019 के चुनाव तक बाबूलाल मरांडी झारखंड की राजनीति में किंग मेकर की भूमिका में रहे।लेकिन जीतने वाले विधायकों को नहीं संभाल पाए।2014 के चुनाव में अच्छा परिणाम हासिल हुआ। पर उनके पांच विधायक भाजपा में शामिल हो गए।फरवरी 2020 में बाबूलाल मरांडी की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया।
झारखंड विधानसभा 2024 में बाबूलाल की जिम्मेदारी
झारखंड विधानसभा 2024 में बाबूलाल मरांडी के कद को कमतर आंका गया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान, हिंदुत्व के फायर ब्रांड चेहरे और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को इस राज्य में कमल खिलाने की जिम्मेदारी दी। नतीजा सामने आया जेएमएम को 34, बीजेपी को 21, कांग्रेस को 16, आरजेडी को 4 और माले को 2 सीटें मिली।
पर पार्टी ने हार के बाद बाबूलाल मरांडी की महत्व को समझा और झारखंड विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी विधायक दल का नेता चुन लिया। प्रदेश कार्यालय में केंद्रीय पर्यवेक्षकों भूपेंद्र यादव और के. लक्ष्मण की मौजूदगी में हुई विधायकों की बैठक में उनके नाम पर सर्वसम्मति बनी।
ऊबड़ खाबड़ डगर पर बाबूलाल मरांडी
बाबूलाल मरांडी का जन्म 11 जनवरी 1958 को हुआ था। स्कूली पढ़ाई उन्होंने झारखण्ड के गिरिडीह जिले के कोदाईबांक नामक गांव मे की। रांची विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर किया और उसी समय वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। झारखण्ड क्षेत्र के विश्व हिन्दू परिषद का संगठन सचिव भी बने। नक्सली आंदोलन के विरुद्ध लोकतांत्रिक व्यवस्था में झारखंड के विकास के पैरोकार हो गए।
1991 में गोविंदाचार्य की नजर पड़ी और उन्हें संघ से बीजेपी में एक खास मकसद के लिए ले आए। तब तो बाबूलाल मरांडी को भी पता नहीं था कि गोविंदाचार्य झारखंड के नायक शिबू सोरेन के विरुद्ध उन्हें राजनीतिक शिकस्त देने लिए चुन लिए हैं। और यह मौका 1991 में ही आ गया। वर्ष 1991 के चुनाव में बाबूलाल मरांडी झामुमो के शिबू सोरेन के विरुद्ध दुमका लोकसभा से लड़े तो जरूर पर हार गए। वर्ष 1996 लोकसभा चुनाव में फिर टकराए और 5000 वोट के बहुत कम अंतर से से हारे।
वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी ने अंततः उन्हें शिबू सोरेन को हराने में सफलता मिली। इतना ही नहीं बाबूलाल मरांडी ने 1999 के चुनाव में उन्होंने शिबू सोरेन की पत्नी रूपी सोरेन को दुमका से हराया।
लोकसभा चुनाव में हीरो बने
बाबूलाल मरांडी 1998 के लोकसभा चुनाव में हीरो बन कर उभरे। उन्होंने झारखंड के बड़े दिग्गज नेता शिबू सोरेन को लोकसभा चुनाव में मात दी थी. बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में ही 1998 के लोकसभा चुनाव के दौरान एकीकृत बिहार के झारखंड में पड़ने वाले 14 लोकसभा सीटों में से 12 सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। इस जीत ने बाबूलाल मरांडी को राष्ट्रीय स्तर पर एस्टेब्लिश किया था. उनको पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के कैबिनेट में भी जगह मिली थी।
वर्ष 2000 में जब झारखंड विधानसभा का चुनाव हुआ तो झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री बने। लेकिन डोमिसाइल विवाद की वजह से 2003 में उनको सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। यहीं से बाबूलाल मरांडी के विरुद्ध भाजपा में गुटबाजी शुरू हो गई। अपनों के दगाबाजी के कारण नाराज बाबूलाल मरांडी ने 2006 में भाजपा छोड़ दी।
चाचा के बदले खुद गोलियां झेली अनूप ने
गिरिडीह स्थित चिलखारी का फुटबॉल मैदान और 26 अक्टूबर 2007 का वह मनहूस दिन। जब गोलियों की तड़तड़ाहट ने लील थी 20 जिंदगियां और उसमें एक शख्स ऐसा था जिसमें बसती थी बाबू लाल मरांडी की जान। नक्सलियों ने चिलखारी में जो खून की नदी बहाई थी उसमें कुछ कतरा बाबू लाल मरांडी के पुत्र अनूप मरांडी के भी थे। बाबू लाल मरांडी के पुत्र अनूप मरांडी जिसने देखे थे उंगलियों में गिन लिए जाने वाले कुछ ही बसंत। पर उसे नहीं मालूम था कि वह इस धरती पर आया ही था अपने चाचा नुनु मंडल पर अपनी जान कुर्बान करने।
यह असहनीय पीड़ा का समय था!
ये वो समय था जब चिलखारी फुटबॉल मैदान में टूर्नामेंट के अंत होने के बाद करीब 10 हजार की भीड़ सोरेन ओपेरा नामक संथाली जात्रा का आनंद ले रहे थे। इस आनंद में खलल डालने नक्सली पहुंचे और अंधाधुंध गोलियों की बरसात कर दी। हालांकि नक्सली पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी के भाई नुनु मरांडी की हत्या करने आए थे। पर समय के पन्नों पर बाबू लाल मरांडी के बेटे अनूप मरांडी के साथ 20 लोगों की दर्दनाक मौत की कहानी दर्ज होनी थी। यह दीगर कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने घटना स्थल पर पहुंच कर अपनी संवेदना व्यक्त की पर हत्यारे आज भी खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
झारखंड विकास मोर्चा का गठन
और झारखंड विकास मोर्चा नाम से पार्टी बना ली। 2006 से 2019 के चुनाव तक बाबूलाल मरांडी झारखंड की राजनीति में किंग मेकर की भूमिका में रहे।लेकिन जीतने वाले विधायकों को नहीं संभाल पाए।2014 के चुनाव में अच्छा परिणाम हासिल हुआ। पर उनके पांच विधायक भाजपा में शामिल हो गए।फरवरी 2020 में बाबूलाल मरांडी की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया।
झारखंड विधानसभा 2024 में बाबूलाल की जिम्मेदारी
झारखंड विधानसभा 2024 में बाबूलाल मरांडी के कद को कमतर आंका गया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान, हिंदुत्व के फायर ब्रांड चेहरे और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को इस राज्य में कमल खिलाने की जिम्मेदारी दी। नतीजा सामने आया जेएमएम को 34, बीजेपी को 21, कांग्रेस को 16, आरजेडी को 4 और माले को 2 सीटें मिली।
पर पार्टी ने हार के बाद बाबूलाल मरांडी की महत्व को समझा और झारखंड विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी विधायक दल का नेता चुन लिया। प्रदेश कार्यालय में केंद्रीय पर्यवेक्षकों भूपेंद्र यादव और के. लक्ष्मण की मौजूदगी में हुई विधायकों की बैठक में उनके नाम पर सर्वसम्मति बनी।
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