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डेटा और माइंड गेम सब हो गए थे फेल, JSP नहीं बल्कि ये था प्रशांत किशोर का '0' पर आउट होने वाला पॉलिटिकल डेब्यू

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पटना: प्रशांत किशोर (पीके) को बड़ा चुनावी रणनीतिकार माना जाता है। हालांकि अब वे फुलटाइम नेता बन चुके हैं। नयी पार्टी (जन सुराज पार्टी) बना कर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं। शुक्रवार को नतीजे आने वाले हैं। उन्होंने कहा है कि अगर जनसुराज को 150 से कम सीटें मिलीं तो ये उनकी हार मानी जाएगी। एग्जिट पोल के संकेतों के मुताबिक जनसुराज को किसी भी हाल में 150 सीटें मिलती हुई नहीं दिख रही हैं। एक-दो सर्वे में एक से पांच सीटों का अनुमान लगाया गया है। यानी उन्हें अब संभावित हार के लिए तैयार रहना चाहिए। बिहार विधानसभा चुनाव में बड़े-बड़े दावे करने वाले प्रशांत किशोर की मिट्टीपलीद होती दिख रही है। नेता के रूप में प्रशांत किशोर छह साल पहले भी फेल हो चुके हैं। मौका था झारखंड विधानसभा का चुनाव का।


2019 : जदयू में नीतीश के बाद दूसरे बड़े नेता थे पीके

2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव के समय प्रशांत किशोर जदयू के उपाध्यक्ष थे। पार्टी में वे नीतीश कुमार के बाद दूसरे पायदान पर खड़े थे। नीतीश कुमार ने अपने अनुभवी और बड़े-बड़े नेताओं को दरकिनार कर प्रशांत किशोर को ये रुतबा दिया था। उस समय नीतीश कुमार को इन पर बहुत भरोसा था। वे प्रशांत किशोर का अपना उत्तराधिकारी बनाने तक की बात सोचने लगे थे। 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव के समय प्रशांत किशोर दोहरी भूमिका में थे। उन्हें चुनाव की रणनीति भी बनानी थी और जदयू को झारखंड में स्थापित भी करना था।


पीके के कारण नहीं हुआ था भाजपा-जदयू में तालमेल !
कहा जाता है कि प्रशांत किशोर के अड़ियल रवैये के कारण झारखंड चुनाव में भाजपा और जदयू के बीच गठबंधन नहीं हो पाया था। प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार को अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का सुझाव दिया था ताकि पार्टी को झारखंड में मजबूती प्रदान की जा सके। इसकी वजह से भाजपा और जदयू के रास्ते अलग हो गये। प्रशांत किशोर ने चार महीने पहले से झारखंड चुनाव की तैयारी शुरू की। जदयू के लिए 48 अनुकूल सीटों की पहचान की गयी। जिस पर बाद में तथाकथित योग्य उम्मीदवार उतारे गये। भाजपा ने अलग हो कर 79 सीटों पर चुनाव लड़ा।


स्टार प्रचारकों की सूची में भी नम्बर दो पर थे पीके
झारखंड चुनाव के लिए जब जदयू के स्टार प्रचारकों की सूची जारी हुई तब इसमें नीतीश कुमार के बाद दूसरा नाम प्रशांत किशोर का ही था। प्रशांत किशोर के बाद ही ललन सिंह और आरसीपी सिंह जैसे बड़े नेताओं को जगह मिली थी। इस बीच नीतीश कुमार बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन धर्म का लिहाज करते हुए घोषणा कर दी कि वे झारखंड में चुनाव प्रचार करने नहीं जाएंगे। वे भाजपा के साथ टकराव नहीं चाहते थे। तब नीतीश की गैरमौजूदगी में प्रशांत किशोर झारखंड चुनाव के लिए जदयू के नम्बर एक नेता हो गये। उन पर बड़ी जवाबदेही गयी।


सालखान मुर्मू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का दांव काम न आया
प्रशांत किशोर की रणनीतिक सलाह पर ही चर्चित आदिवासी नेता सालखन मुर्मू को झारखंड का प्रदेश जदयू अध्यक्ष बनाया गया था। वे ओडिशा के मयूरभंज से भाजपा के टिकट पर 1998 और 1999 में सांसद रह चुके थे। वे एक मजबूत नेता थे। 2019 के चुनाव में उन्हें जदयू ने दो सीटों से मैदान में उतारा था, शिकारीपाड़ा और मझगांव। हैरानी की बात ये थी कि प्रशांत किशोर ने झारखंड में अपने प्रदेश अध्यक्ष और सबसे मजबूत उम्मीदवार के लिए जो रणनीतियां बनायीं वह किसी काम की नहीं रहीं। दोनों ही सीटों पर उनकी हार हुई। शिकारीपाड़ी विधानसभा सीट पर सालखन मुर्मू को 4,445 वोट मिले और वे चौथे स्थान पर रहे। मझगांव सीट पर उनकी और बुरी हालत रही। यहां महज 1,889 वोट मिले और वे 9वें स्थान पर रहे। इस चुनाव में जदयू का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत पाया।


नेता और रणनीतिकार, दोनों रूपों में फेल
झारखंड चुनाव में प्रशांत किशोर नेता और रणनीतिकार, दोनों रूपों में फेल हो गये थे। इस चुनाव में जदयू को 1 फीसदी वोट भी नहीं मिला था। जदयू ने अपने घोषणा पत्र में शराबबंदी का वादा किया था। लेकिन यह दांव भी उल्टा पड़ गया। इस हार से यह भी साबित होता है कि प्रशांत किशोर का चुनाव प्रबंधन जीत की गारंटी नहीं है। रणनीतिकार के रूप में अगर उनके खाते में जीत हैं तो हार भी हैं। वे अपनी जीत की चर्चा तो करते हैं लेकिन हार के बारे में कभी कुछ नहीं कहते। माना जाता है कि प्रशांत किशोर के फीडबैक पर ही नीतीश कुमार ने झारखंड में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था। उस समय इस बात की भी चर्चा थी कि प्रशांत किशोर की टीम झारखंड के 24 जिलों में पिछले छह महीने से काम कर रही थी। लेकिन इसके बाद भी जदयू कुर्मी बहुल सीटों पर भी नहीं जीत सका।
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