उत्तराखंड में 1 अप्रैल से 31 अगस्त तक बारिश के चलते 80 से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं और 100 से अधिक लापता हैं। घायलों की तादाद भी 100 से ऊपर बताई जा रही है। घर, सड़क, होटल, मवेशी - कुल मिलाकर दो हजार करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान है। आखिर पहाड़ों पर बारिश इतनी घातक कैसे हो गई? बरसात तो पहले भी खूब होती थी, लेकिन लोग मरते नहीं थे। अब क्या हुआ? मौसम वैज्ञानिक इसे मॉनसून के परिवर्तनकारी पैटर्न से जोड़कर देख रहे हैं, जबकि तजुर्बेकार प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ से।
कमजोर निगरानी: पहाड़ों पर अतिक्रमण चलन बन चुका है। नीतियों में तीर्थाटन को पर्यटन मान लिया गया है और संवेदनशील तीर्थस्थलों पर उमड़ रही भीड़ को पर्यटन क्रांति कहा जा रहा। समय के साथ विकास को रोका नहीं जा सकता - खासकर पहाड़ों में सड़कों का विस्तार, तीर्थों का कायाकल्प, बांधों का निर्माण और पर्यटन विकास सरकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। लेकिन, कमजोर निगरानी तंत्र के कारण यह जिम्मेदारी संसाधनों की लूट-खसोट में बदल गई। निगरानी तंत्र की सबसे मजबूत कड़ी स्थानीय लोग होते हैं, लेकिन वे रोजगार और कारोबार के वशीभूत खुद इस खेल का हिस्सा बन गए।
जवाबदेही जरूरी: आपदाएं आत्ममंथन का भी संदेश छोड़ जाती हैं। इस बार का संदेश यही है कि लोग खुद को कसूरवार मानें। माना कि विकास बनाम पर्यावरण का संघर्ष नया नहीं, लेकिन एकतरफा आरोप नहीं चल सकते। संतुलन साधने की जवाबदेही सामूहिक है। केदार महाविनाश के घाव मंदिर के पास ठहर गई एक शिला के पूजन से भर दिए जाएं और वहां नवनिर्माण का 'इको फ्रेंडली' वादा नारा भर रह जाए, यह नहीं होना चाहिए। पर क्या पंडे-पुजारी और स्थानीय लोग जवाबदेही से बच सकते हैं? सरकार ने साफ-सुथरे मन से देवस्थानम बोर्ड जैसे फैसले लेने चाहे, पर क्या स्थानीय लोग मानें!
सरकारों की चाल: श्रीनगर में धारी देवी को बांध से बचाने आगे आए पर्यावरण प्रेमी संत गुरुदास अग्रवाल पर पोती गई कालिख और उमा भारती पर फेंके गए पत्थरों के घाव हमारी याददाश्त में होने चाहिए। सरकारें तो पर्यावरण विरोधी परियोजनाओं के विरोध का यही हस्र चाहती हैं। इसीलिए उत्तराखंड के तत्कालीन मंत्री ने धारी गांव के लोगों को बस में भरकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा कर दिया कि बांध के प्रमोटर स्थानीय लोगों को नौकरी देने को तैयार हैं, पर पर्यावरणवादी रोड़ा बन रहे हैं। उन नौकरियों का क्या हुआ? केदार आपदा में इस बांध से छोड़े गए पानी के कारण श्रीनगर शहर का एक हिस्सा रेत के टीले में बदल गया है। आज अधिकांश ऋतुओं में अलकनंदा किसी नाले की तरह बहने को मजबूर है।
कैसा सेंसिटिव जोन: गुरुदास अग्रवाल (स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद) ने 2009 में भागीरथी घाटी की तीन बड़ी बांध परियोजनाओं लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैरोंघाटी के खिलाफ अनशन किया था। तत्कालीन केंद्र सरकार ने न सिर्फ तीनों परियोजनाओं को रद्द किया, बल्कि जुलाई 2011 में भागीरथी घाटी को 'इको-सेंसिटिव जोन' घोषित कर दिया। इससे गोमुख से नीचे उत्तरकाशी तक, भागीरथी के 135 किलोमीटर के जल संभरण क्षेत्र में निर्माण कार्यों पर रोक लग गई। लेकिन राज्य में BJP की सरकार रही हो या कांग्रेस की, सभी ने केंद्र के फैसले का विरोध किया। इको-सेंसिटिव जोन होने के बावजूद ऑल वेदर रोड जैसी बड़ी परियोजनाएं कैसे पहाड़ों को काटती चली गईं? क्यों NGT गंगोत्री घाटी में हुए अतिशय निर्माण और अराजक पर्यटन पर खफा है?
खुद से सवाल: NGT के संज्ञान में यह बात आई है कि गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच हाल के वर्षों मे 500 से अधिक होम स्टे बन गए हैं। इनमें अधिकांश भागीरथी के जल संभरण क्षेत्र में हैं। सुप्रीम कोर्ट भी टिप्पणी कर रहा है कि हिमाचल हो या उत्तराखंड, पेड़ों की अंधाधुंध कटान आपदा की वजह है। पहाड़ों पर सड़क बने, पर कितनी चौड़ी? होटल बनें, पर कितने बड़े? बांध बनें, पर क्या रिजर्वायर का आयतन गुपचुप बढ़ा दिया जाए? तीर्थों को सुविधामय बनाने के लिए विकास हो, पर क्या पर्यावरण का मखौल उड़ाकर? पहले ये सवाल हमें खुद से पूछने होंगे।
कमजोर निगरानी: पहाड़ों पर अतिक्रमण चलन बन चुका है। नीतियों में तीर्थाटन को पर्यटन मान लिया गया है और संवेदनशील तीर्थस्थलों पर उमड़ रही भीड़ को पर्यटन क्रांति कहा जा रहा। समय के साथ विकास को रोका नहीं जा सकता - खासकर पहाड़ों में सड़कों का विस्तार, तीर्थों का कायाकल्प, बांधों का निर्माण और पर्यटन विकास सरकार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। लेकिन, कमजोर निगरानी तंत्र के कारण यह जिम्मेदारी संसाधनों की लूट-खसोट में बदल गई। निगरानी तंत्र की सबसे मजबूत कड़ी स्थानीय लोग होते हैं, लेकिन वे रोजगार और कारोबार के वशीभूत खुद इस खेल का हिस्सा बन गए।
जवाबदेही जरूरी: आपदाएं आत्ममंथन का भी संदेश छोड़ जाती हैं। इस बार का संदेश यही है कि लोग खुद को कसूरवार मानें। माना कि विकास बनाम पर्यावरण का संघर्ष नया नहीं, लेकिन एकतरफा आरोप नहीं चल सकते। संतुलन साधने की जवाबदेही सामूहिक है। केदार महाविनाश के घाव मंदिर के पास ठहर गई एक शिला के पूजन से भर दिए जाएं और वहां नवनिर्माण का 'इको फ्रेंडली' वादा नारा भर रह जाए, यह नहीं होना चाहिए। पर क्या पंडे-पुजारी और स्थानीय लोग जवाबदेही से बच सकते हैं? सरकार ने साफ-सुथरे मन से देवस्थानम बोर्ड जैसे फैसले लेने चाहे, पर क्या स्थानीय लोग मानें!
सरकारों की चाल: श्रीनगर में धारी देवी को बांध से बचाने आगे आए पर्यावरण प्रेमी संत गुरुदास अग्रवाल पर पोती गई कालिख और उमा भारती पर फेंके गए पत्थरों के घाव हमारी याददाश्त में होने चाहिए। सरकारें तो पर्यावरण विरोधी परियोजनाओं के विरोध का यही हस्र चाहती हैं। इसीलिए उत्तराखंड के तत्कालीन मंत्री ने धारी गांव के लोगों को बस में भरकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर इकट्ठा कर दिया कि बांध के प्रमोटर स्थानीय लोगों को नौकरी देने को तैयार हैं, पर पर्यावरणवादी रोड़ा बन रहे हैं। उन नौकरियों का क्या हुआ? केदार आपदा में इस बांध से छोड़े गए पानी के कारण श्रीनगर शहर का एक हिस्सा रेत के टीले में बदल गया है। आज अधिकांश ऋतुओं में अलकनंदा किसी नाले की तरह बहने को मजबूर है।
कैसा सेंसिटिव जोन: गुरुदास अग्रवाल (स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद) ने 2009 में भागीरथी घाटी की तीन बड़ी बांध परियोजनाओं लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैरोंघाटी के खिलाफ अनशन किया था। तत्कालीन केंद्र सरकार ने न सिर्फ तीनों परियोजनाओं को रद्द किया, बल्कि जुलाई 2011 में भागीरथी घाटी को 'इको-सेंसिटिव जोन' घोषित कर दिया। इससे गोमुख से नीचे उत्तरकाशी तक, भागीरथी के 135 किलोमीटर के जल संभरण क्षेत्र में निर्माण कार्यों पर रोक लग गई। लेकिन राज्य में BJP की सरकार रही हो या कांग्रेस की, सभी ने केंद्र के फैसले का विरोध किया। इको-सेंसिटिव जोन होने के बावजूद ऑल वेदर रोड जैसी बड़ी परियोजनाएं कैसे पहाड़ों को काटती चली गईं? क्यों NGT गंगोत्री घाटी में हुए अतिशय निर्माण और अराजक पर्यटन पर खफा है?
खुद से सवाल: NGT के संज्ञान में यह बात आई है कि गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच हाल के वर्षों मे 500 से अधिक होम स्टे बन गए हैं। इनमें अधिकांश भागीरथी के जल संभरण क्षेत्र में हैं। सुप्रीम कोर्ट भी टिप्पणी कर रहा है कि हिमाचल हो या उत्तराखंड, पेड़ों की अंधाधुंध कटान आपदा की वजह है। पहाड़ों पर सड़क बने, पर कितनी चौड़ी? होटल बनें, पर कितने बड़े? बांध बनें, पर क्या रिजर्वायर का आयतन गुपचुप बढ़ा दिया जाए? तीर्थों को सुविधामय बनाने के लिए विकास हो, पर क्या पर्यावरण का मखौल उड़ाकर? पहले ये सवाल हमें खुद से पूछने होंगे।
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