उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की सुप्रीम कोर्ट पर की गई टिप्पणियों ने कार्यपालिका और विधायिका के बीच के टकराव को सार्वजनिक कर दिया है। जजों की नियुक्ति का मामला हो या संविधान की व्याख्या -मतभेद पहले भी रहे हैं। लेकिन, पहली बार संवैधानिक पद पर बैठे किसी जिम्मेदार ने इतनी तल्ख बातें की हैं। जिस मंच का इस्तेमाल किया गया, वह भी सही नहीं था। इससे किसी बदलाव की उम्मीद कम, बेकार की बहस बढ़ने का अंदेशा ज्यादा है। फैसले का संदर्भ: शीर्ष अदालत ने हाल में एक मामले की सुनवाई करते हुए राज्यपालों के अलावा राष्ट्रपति के लिए भी विधेयक पास करने की समय-सीमा तय कर दी है। उपराष्ट्रपति की टिप्पणियां उसी संदर्भ में थीं। उनका सबसे सख्त ऐतराज इस पर बात पर रहा कि सुप्रीम कोर्ट देश के राष्ट्रपति को निर्देश नहीं दे सकता। धनखड़ संवैधानिक पद पर हैं और जब वह ऐसी बात करते हैं, तो टकराव बढ़ता है। पूर्ण न्याय का रास्ता: उपराष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 142 को लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ न्यूक्लियर मिसाइल बताया है। यह अनुच्छेद SC को विशेष अधिकार देता है। जब पूर्ण न्याय के लिए कोई और रास्ता नहीं बचता, तब सुप्रीम अदालत इस अनुच्छेद से मिली पूर्ण शक्तियों का इस्तेमाल करती है। इसे किसी संवैधानिक संस्था के खिलाफ हथियार नहीं कहा जा सकता, बल्कि यह उम्मीद का दरवाजा है। संवैधानिक टकराव: उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट को 'सुपर संसद' कहा, अनुच्छेद 145 (3) में संशोधन की वकालत की। यह अनुच्छेद तय करता है कि संविधान से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ का गठन किस तरह किया जाएगा। ऐसे में इस तरह की टिप्पणियां जनता में भ्रम पैदा कर सकती हैं, अविश्वास का माहौल बनता है। जवाबदेही की चिंता: उपराष्ट्रपति की कुछ चिंताएं अपनी जगह सही हैं। उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश के घर से मिले नोटों के जले हुए बंडल का जिक्र किया और जवाबदेही की बात उठाई। देश के नागरिक के तौर पर उनकी चिंता और सवाल जायज हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे पारदर्शिता बढ़े और न्यायपालिका पर भरोसा कायम रहे। हालांकि बतौर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अपनी टिप्पणियों से बच सकते थे। आज के राजनीतिक माहौल में उनसे ज्यादा संतुलित व्यवहार की अपेक्षा की जाती है।
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