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पेट्रोल की कीमतों के स्याह सच और सफेद झूठ

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31 मार्च को जब वित्त वर्ष समाप्त हो रहा था तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत  थी 74.69 डॉलर प्रति बैरल। उस दिन दिल्ली में पेट्रोल पंप में  पेट्रोल के दाम थे 94.77 रुपये प्रति लीटर और डीजल के दाम थे 87.67 रुपये प्रति लीटर। ठीक उसी समय मुंबई के पेट्रोल पंप इन दोनों ही उत्पादों को क्रमशः 103.50 और 90.03 रुपये प्रति लीटर पर बेच रहे थे। अगले एक सप्ताह में कच्चे तेल के दाम मुंह के बल गिरे। लगातार गिरते हुए 7 अप्रैल को 64 डाॅलर प्रति बैरल पर पहुंच गए। लेकिन दिल्ली और मुंबई के पेट्रोल पंप पर कीमतों में कोई फर्क नहीं पड़ा। देश के दूसरे हिस्सों में भी कीमतें जस की तस रहीं।

एक हफ्ते की लगातार गिरावट के बाद सरकार को लगा कि कुछ करना चाहिए और उसने पेट्रोल एवं डीजल पर एक्साइज ड्यूटी दो रुपये प्रति लीटर बढ़ा दिया। यह सफाई भी जोड़ दी गई कि इससे पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लोगों को पहले के दाम पर ही ये दोनों चीजें मिलती रहेंगी। इसके बाद कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने ट्वीट किया- 'कच्चे तेल की कीमत गिरती जा रही है। आज कच्चे तेल का दाम 64 डाॅलर प्रति बैरल था। डाॅयनमिक प्राईसिंग का क्या हुआ? क्या यह सिर्फ एक तरफा रास्ता है जिसमें कीमतें ऊपर ही जाती हैं, नीचे नहीं आतीं'।

जैसे इतना ही काफी नहीं था। सरकार ने एक और विज्ञप्ति जारी की और एलपीजी गैस सिलेंडर के दाम में 50 रुपये की बढ़ोत्तरी कर दी। 

मनमोहन सिंह सरकार के समय पेट्रोलियम की कीमतों की व्यवस्था में सुधार किया गया, तो  वादा था कि इनके खुदरा मूल्य को कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से जोड़ा जाएगा। यानी वहां जब कच्चे तेल का भाव गिरेगा, तो भारत में लोगों को पेट्रोलियम उत्पाद सस्ते दाम पर मिलेंगे और जब बढ़ेगा, तो महंगे मिलेंगे। यह भी तय किया गया कि ये दाम किसी भी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप से बचे रहेंगे। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी, तो उसके सामने दो विकल्प थे। एक यह कि वह मनमोहन सिंह की नीति पर ही चलती रहती और कच्चे तेल के बाजार भाव के हिसाब से ही पेट्रोल और डीजल के भाव घटते-बढ़ते रहते। दूसरा यह था कि वह घोषणा करके उस नीति को खत्म कर देती और फिर कोई नई नीति अपना लेती।

लेकिन ये दोनों ही काम नहीं किए गए। न तो उस नीति के खत्म होने की कोेई घोषणा की गई और न ही दुनिया के बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम होने का कोई फायदा ही भारतीयों को कभी मिला। यह जरूर हुआ कि जब-जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ीं, भारत में भी कीमतें बढ़ा दी गईं। 

मनमोहन सिंह के समय पर जब कभी विश्व बाजार की वजह से पेट्रोल, डीजल की कीमतें बढ़तीं, बीजेपी खासा हंगामा करती थी। पार्टी के छोटे से बड़े नेता धरना-प्रदर्शन करते। पार्टी का ईकोसिस्टम भी सक्रिय हो जाता। तरह-तरह के चुटकले बनाए जाते। अमिताभ बच्चन, अनुपम खेर, चेतन भगत जैसे सेलेब्रिटी इन चुटकुलों को ट्वीट करते। ऐसे ही एक मौके पर जब पेट्रोल के दाम बढ़ाए गए, तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था- यह 'कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की नाकामी का सबसे बड़ा उदाहरण है।'

यह भी सच है कि मोदी जब देश के प्रधानमंत्री बने, तो उसके तुरंत बाद उनके पास पेट्रोल और डीजल की कीमतें घटाने का सुनहरा मौका था। उनके सत्ता संभालने के कुछ समय बाद ही लंबे अर्से से बहुत ज्यादा तेजी पर चल रहे कच्चे तेल का विश्व बाजार अचानक ही टूट गया। मई 2014 में जब मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, विश्व बाजार में कच्चे तेल का दाम 106.85 डाॅलर प्रति बैरल था। यह उसका शिखर था और फिर यह काफी तेजी से नीचे आने लगा। जनवरी 2016 आते-आते यह 28.1 डाॅलर प्रति बैरल हो गया। यह 70 फीसद से ज्यादा की गिरावट थी। लेकिन इसके मुकाबले लोगों को मिली राहत निहायत ही मामूली थी। जैसे-जैसे विश्व बाजार में कच्चे तेल के भाव गिरते गए, भारत में पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले करों को लगातार बढ़ाया जाने लगा। सुनिश्चित कर दिया गया कि लोगों को सस्ते न मिल सकें। 

मई 2014 के दिल्ली के आंकड़ों की तुलना सितंबर 2018 के आंकड़ों से करें, तो करों का अंतर और इसका असर आसानी से समझा जा सकता है। मई 2014 में पेट्रोल पर लगने वाले केन्द्रीय कर थे 10.38 रुपये प्रति लीटर जो सितंबर 2018 में बढ़कर लगभग दुगने यानी 19.48 रुपये हो गए। केन्द्र अगर टैक्स बढ़ा रहा था, तो दिल्ली की राज्य सरकार भला कैसे पीछे रहती। उसने पेट्रोल पर लगने वाले अपने कर को 11.90 रुपये प्रति लीटर से बढ़ाकर 17.16 रुपये कर दिया। इतना सब हो गया तो पेट्रोल पंप मालिकों को मिलने वाला कमीशन भी बढ़ना ही था। उसे दो रुपये से बढ़ाकर 3.64 रुपये कर दिया गया। 

नतीजा यह रहा कि मई 2014 में दिल्ली के लोगों को जो पेट्रोल 71.41 रुपये प्रति लीटर में मिल रहा था, सितंबर 2018 में 80.73 रुपये में मिलने लगा। वह भी तब जब विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमत काफी कम थी। इसे कुछ हद तक इस आंकड़े से समझ सकते हैं कि मई 2014 में जब पेट्रोल किसी पंप पर पहुंचता था, तो कंपनियों के मुनाफे और उसके भाड़े और तमाम खर्चों के बाद उसकी कीमत यानी बेस प्राईस होती थी 47.13 रुपये प्रति लीटर, जबकि सितंबर 2018 में वह घटकर 40.45 रुपये प्रति लीटर हो गई।

जल्द ही सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में राजनीतिक हस्तक्षेप भी शुरू कर दिया। 2022 में जब चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव आए, तो लंबे समय तक कीमतों को जस का तस रहने दिया गया। चुनाव 27 मार्च को शुरू होने थे और कीमतें 27 फरवरी से ही बढ़नी बंद हो गईं। 2024 के आम चुनाव आए, तो सरकार ने चुनाव के कुछ हफ्ते पहले पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कमी कर दी। बदलाव बहुत स्पष्ट था- भारत फिर से नियंत्रित पेट्रोल कीमतों वाले युग में लौट चुका था। 

कच्चे तेल की कीमतों के लगातार गिरने के बावजूद पेट्रोल और डीजल की कीमतों को घटाने से इनकार सिर्फ नीति को पलटना ही नहीं है, एक तरह से जनता के साथ धोखा भी है। जब लोगों से कहा जाता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार के दबावों के कारण उन्हें ज्यादा कीमतों का भार वहन करना होगा। इसका मतलब यह है कि जब विश्व बाजार में कीमतें घटती हैं, तो उन्हें इसका फायदा भी मिलना चाहिए। मोदी सरकार ने जिस तरह से ईंधन की कीमतों में बदलाव किया है, वह लोगों से साथ विश्वासघात है। उसने राहत के मुकाबले राजस्व को प्राथमिकता दी है और नियंत्रणमुक्त बाजार को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है।

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