– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश और देश के कई हिस्सों में पिछले दिनों अचानक भड़के ‘आई लव मोहम्मद’ विवाद ने पूरे समाज को हिला दिया है। कानपुर से शुरू होकर यह आग बरेली, मऊ, उन्नाव, बाराबंकी, कौशांबी, लखनऊ, महाराजगंज और कई जिलों में फैल गई। देखते ही देखते यह मामला उत्तराखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बिहार तक पहुंच गया। एक पोस्टर और कुछ नारेबाजी से शुरू हुआ यह विवाद अब एक गहरे सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक विमर्श का विषय बन चुका है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि यदि यह आंदोलन केवल मजहबी श्रद्धा और मोहब्बत का इजहार था तो फिर इसमें हिंसा क्यों हुई? सरकारी संपत्ति क्यों जलाई गई और खासतौर पर हिंदू व्यापारियों की दुकानों और प्रतिष्ठानों को ही क्यों निशाना बनाया गया?
घटनाक्रम की शुरुआत कानपुर से हुई जब 4 सितंबर 2025 को बारावफात के जुलूस में मुस्लिम युवकों ने ‘आई लव मोहम्मद’ लिखे पोस्टर और बैनर लगाए। पुलिस ने इन्हें हटाया और नौ युवकों पर मुकदमा दर्ज कर दिया। प्रशासन का कहना था कि यह कदम संभावित विवाद को रोकने के लिए उठाया गया। लेकिन उसी शाम से विरोध के स्वर तेज होने लगे। अगले दिन 5 सितंबर को कानपुर की सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गया, ट्रैफिक बाधित हुआ, बाजार बंद होने लगे और तनाव बढ़ता गया।
बरेली में जुमे की नमाज के बाद मस्जिद के बाहर भारी संख्या में लोग जमा हुए और पुलिस से झड़प हुई। पथराव और लाठीचार्ज की घटनाएं हुईं। कई दुकानें क्षतिग्रस्त हुईं और बाजारों में अफरातफरी फैल गई। मऊ में तो हालात और बिगड़ गए। वहां जुमे की नमाज के बाद उपद्रवियों ने पुलिस पर पथराव किया, कई थानों पर हमला किया और आंसू गैस तथा लाठीचार्ज के बावजूद देर रात तक हालात काबू में नहीं आए। स्थानीय दुकानदारों को दुकानें बंद रखने से भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है।
उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों उन्नाव, कौशांबी, बाराबंकी और महाराजगंज में भी इसी तरह की घटनाएँ देखने को मिलीं। हिंसक भीड़ ने सरकारी वाहनों और सार्वजनिक संपत्तियों को क्षति पहुँचाई। खासतौर पर पुलिस चौकियों और हिंदू व्यापारियों की दुकानों को निशाना बनाया गया। प्रशासनिक रिपोर्टों के अनुसार यह हिंसा आकस्मिक नहीं, बल्कि योजनाबद्ध थी। दंगाइयों ने जिन इलाकों को निशाना बनाया वहाँ पहले से पहचान कर रखी गई दुकानों और प्रतिष्ठानों पर हमला किया गया। यही कारण है कि इस विवाद को केवल धार्मिक आस्था की लड़ाई नहीं माना जा रहा, बल्कि इसे राजनीतिक और कट्टरपंथी संगठनों की साजिश की तरह देखा जा रहा है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि कानून-व्यवस्था पर सख्त नियंत्रण रखने वाली रही है और इस बार भी उन्होंने वही किया जो किसी जिम्मेदार मुख्यमंत्री को करना चाहिए। दंगाइयों पर पुलिस की लाठियां बरसीं। पर सवाल यह उठता है कि समाजवादी पार्टी की सांसद इकरा हसन जैसे नेता इस सख्ती पर ऐतराज क्यों कर रहे हैं और क्यों सरकार को तानाशाह कहकर जनता को भड़काने की कोशिश की जा रही है।
इकरा हसन का यह आरोप है कि भाजपा सरकार को न तो संविधान का पता है और न ही नागरिक अधिकारों का। योगी सरकार को जनता मिट्टी में मिला देगी। उनका तर्क था कि अगर कोई अपने पैगंबर के प्रति मोहब्बत जाहिर करता है तो उसमें क्या आपत्ति है? दुनिया भर में मोहम्मद पैगंबर के चाहने वाले लोग हैं और वे ऐसे फरमानों से रुकने वाले नहीं। विपक्षी दलों ने कहा कि सरकार अल्पसंख्यकों को दबा रही है। किंतु जनता के मन में सवाल यही है कि अगर सरकार सख्ती न करती तो क्या दंगे और ज्यादा न फैलते। क्या प्रशासन का हाथ पर हाथ धरे बैठना सही होता? फिर सवाल यह भी है कि अगर यह केवल श्रद्धा का मामला था तो फिर हिंसा क्यों फैलाई गई?
आज कानपुर और बरेली से शुरू हुआ यह विवाद देश के अन्य राज्यों तक पहुँच चुका है। उत्तराखंड के काशीपुर में 23 सितंबर को जुलूस के दौरान पुलिस से झड़प हुई और उपद्रवियों ने वाहनों को क्षतिग्रस्त किया। महाराष्ट्र के नागपुर में मस्जिदों पर पोस्टर लगाए गए और तनाव बढ़ा। कर्नाटक के दावणगेरे में दो समुदायों के बीच झड़प हुई। बिहार के अररिया जिले में भी जुलूस निकाले गए और तनावपूर्ण स्थिति बनी रही। आज इन घटनाओं ने सरकारी और निजी दोनों ही स्तरों पर भारी आर्थिक नुकसान पहुँचाया है।
बरेली, मऊ और कानपुर में व्यापारियों की दुकानें जलाई गईं, पुलिस वाहन तोड़े गए और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ। दुकानदारों को बड़ा नुकसान हुआ है। छोटे व्यापारी और रोज कमाने-खाने वाले मजदूर काम से वंचित रहे। बच्चे स्कूल नहीं जा पाए। महिलाओं में असुरक्षा की भावना पनपी। बरेली के एक दुकानदार ने कहा, “हम रोज दुकान से जो कमाते हैं, उसी से घर चलता है। दंगे में दुकान टूट गई, अब हम क्या करें।” कानपुर की एक महिला का वक्तव्य भी सभी के सामने हैं, “हम बच्चों को स्कूल भेजने से डर रहे हैं। सड़क पर डर का माहौल है।” यह बयान बताते हैं कि किसी भी धार्मिक या राजनीतिक विवाद में सबसे पहले और सबसे गहरी चोट आम आदमी पर पड़ती है। अनुमान है कि केवल उत्तर प्रदेश में ही करोड़ों रुपये का नुकसान पहुंचा है। सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह पैसा अब आम करदाताओं की जेब से नहीं बल्कि दंगाइयों की संपत्ति से वसूला जाएगा।
सवाल यही उठता है कि आखिर मुसलमानों को पोस्टर हटाने से इतनी आपत्ति क्यों हुई। इस्लाम में किसी मूर्ति या चित्र की पूजा नहीं होती। धार्मिक उलेमा भी मानते हैं कि पोस्टर या बैनर केवल प्रतीक हैं, उनका कोई मजहबी इस्लामिक महत्व नहीं। अगर पोस्टर हटाया गया तो उससे किसी की आस्था पर चोट नहीं पहुँचनी चाहिए थी। फिर भी हिंसा फैलाई गई। अब सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करना किस आधार पर जायज ठहराया जा सकता है!
न्यायपालिका भी पहले स्पष्ट कर चुकी है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वालों से वसूली की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में ही कहा था कि आंदोलन और प्रदर्शन के नाम पर हिंसा किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं होगी। योगी सरकार का यही तर्क है कि जब संविधान हर नागरिक को अधिकार देता है, तो साथ ही कर्तव्य भी तय करता है। अगर कोई समुदाय हिंसा करेगा और दूसरों की संपत्ति को नुकसान पहुँचाएगा तो सरकार चुप नहीं बैठ सकती।
कुल मिलाकर तथ्य यही है कि ‘आई लव मोहम्मद’ विवाद केवल एक पोस्टर का विवाद नहीं है। यह विशुद्ध इस्लाम का राजनीतिक एजेण्डा है, जो ठीक उस वक्त सामने लाया गया है जब देशभर में भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज अपनी आराध्य मां की शक्ति आराधना कर रहा है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ ने वही किया जो एक जिम्मेदार मुख्यमंत्री को करना चाहिए। योगी आदित्यनाथ की कार्रवाई केवल दंड नहीं बल्कि संदेश है कि हिंसा का जवाब कानून से मिलेगा। सभी को यह ध्यान में रखना चाहिए कि भारत की पहचान उसकी विविधता और सहिष्णुता है। अगर इसे कट्टरता और हिंसा से कमजोर किया जाएगा तो नुकसान पूरे लोकतंत्र का होगा।
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हिन्दुस्थान समाचार / डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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