अपना नाम और अपने गांव का नाम न बताने की शर्त पर एक हिंदू महिला और उनके पति मुझसे मिले. इस मुलाक़ात के लिए मैं ढाका से सुबह जल्दी निकला. 200 किलोमीटर से ज़्यादा का सफ़र तय करके मैं दोपहर दो बजे खुलना शहर पहुँचा. वो महिला अपना चेहरा ढंककर मेरे सामने बैठ गईं.
इस महिला और उसके परिवार के साथ जो हुआ वो उन 2000 से अधिक हिंसक वारदातों की सूची में शामिल है जिसे 'बांग्लादेश हिंदू-बौद्ध-क्रिश्चियन एकता परिषद' ने तैयार किया है.
इस सूची में नौ हत्याएं भी शामिल हैं. बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े लोगों के मुताबिक़ अगस्त के महीने में देश भर में हुई हिंसा में उन्हें सोच-समझकर निशाना बनाया गया.
बांग्लादेश में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाली शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ इस साल शुरू हुए देशव्यापी प्रदर्शनों के बाद पांच अगस्त को उन्हें देश छोड़ना पड़ा था और वे भारत आ गई थीं. इन प्रदर्शनों के दौरान अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की वारदातें भी हुई थीं.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए करेंखुलना पहुँचने के बाद बीबीसी ने उस महिला से विस्तार से बातचीत की.
महिला ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की,''पाँच अगस्त हमारे लिए एक सामान्य दिन था. रात करीब पौने नौ बजे 20-25 लोग हमारे घर में घुस आए और तोड़फोड़ करने लगे. मेरे पति बच्चों को लेकर भाग गए.''
''मैं और मेरी सास घर पर थे. तभी उस भीड़ में से दो-तीन लोग मेरे पास आए. मेरी रसोई से एक चाकू उठाया और मुझ पर तान दिया और मेरा मुंह बंद कर दिया."
"मैं डर गई और एक शब्द भी नहीं बोल पाई. मेरे साथ जो अभद्र व्यवहार किया उसे मैं बता भी नहीं सकती. मैंने कभी उन लोगों को नहीं देखा है लेकिन मैं आपको बता सकती हूं कि वे जंगली जानवरों की तरह थे.''
जब मैंने पूछा कि उनकी नज़र में इस हमले की कोई क्या वजह थी तो उन्होंने कहा, ''यह इसलिए हुआ क्योंकि हम हिंदू हैं.''
महिला और उनके पति ने पुलिस के पास नहीं जाने का फ़ैसला किया. जब मैंने इसका कारण पूछा तो बताया कि प्रशासन पर से उनका भरोसा उठ गया है.
मुलाक़ात ख़त्म होने से पहले उनके पति ने मुझसे एक सवाल किया,''क्या भारत में हम लोग शरण ले सकते हैं?''
अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का कहना है कि खुलना वो इलाका है जहां सबसे ज़्यादा हिंसा हुई.
दीपंकर घोष हिंदू-बौद्ध-ईसाई परिषद के सचिव हैं और बताते है कि इस सूची में दो हज़ार से अधिक घटनाओं का जिक्र किया गया है लेकिन हिंसक घटनाओं की वास्तविक संख्या कहीं अधिक है.
वो कहते हैं, ''इनके अलावा और भी बहुत सी घटनाएं घटी हैं जिनको हम सामने नहीं ला सके हैं. कई लोग डर के मारे इन घटनाओं की चर्चा नहीं चाहते.''
यहाँ इस बात को समझना ज़रूरी है कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से जुलाई और अगस्त में देश भर में घटी हिंसा को लेकर जांच का अनुरोध किया है. और वो जाँच फिलहाल जारी है.
संयुक्त राष्ट्र ने अब तक की बात कही है.
Getty Imagesखुलना में 50 वर्षों से अधिक समय से रह रहे बिस्वजीत साधु एक व्यापारी हैं.
समुदाय के मुद्दों की भी बात करते हैं. हिंसा के दौर में उनकी दुकान और घर पर भी हमले हुए थे और उस दिन के निशान अब भी साफ़ नज़र आ रहे हैं.
उसी दुकान में बैठे हुए उन्होंने मुझसे बात की.
वे कहते हैं,''यहां के अधिकतर हिंदू पलायन कर चुके हैं. जिनके पास कुछ भी नहीं है वे चले गए हैं, जिनके पास जमीन है वे नहीं जा रहे हैं. जबरन वसूली और ज़मीन पर कब्ज़ा वर्तमान में चल रहा है. डर की वजह से लोग इसके बारे में बात नहीं कर रहे हैं.''
भारत सरकार के बांग्लादेश में वीज़ा ऑपरेशन को कम करने के फ़ैसले से वह नाखुश नज़र आए.
भारत सरकार ने क़ानून व्यवस्था की हालत का हवाला देते हुए वीज़ा कार्यालय में कर्मचारियों की तादाद घटाई थी. उस निर्णय में अभी तक बदलाव नहीं हुआ है.
वे कहते हैं,''भारत सरकार ने वीजा देना पूरी तरह से बंद कर दिया है. अब हम यहाँ ख़तरे में हैं. अगर मैं भारत अपनी सुरक्षा के लिए जाना भी चाहूँ तो यह संभव नहीं है.''
बांग्लादेश में अब भी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग प्रदर्शन कर रहे हैं.
इन प्रदर्शनों को वहाँ की सरकार कैसे देखती है और यह प्रदर्शन आज के बांग्लादेश के बारे में क्या दर्शाते हैं, यह सवाल मैंने सैयद रिज़वाना हसन से पूछा.
रिज़वाना अंतरिम सरकार में सलाहकार के तौर पर काम कर रही हैं, वे कहती हैं,''बांग्लादेश सांप्रदायिक सद्भाव का देश रहा है और रहेगा. हमारे दरवाजे बातचीत और चर्चा के लिए हमेशा खुले हैं. हालांकि अगर वे सड़क पर प्रदर्शन का विकल्प चुनते हैं तो यह दर्शाता है कि और अधिक बातचीत और चर्चा की आवश्यकता है.''
वे कहती हैं, ''आप देख रहे हैं कि इस वर्ष दुर्गा पूजा कैसे मनाई गई, तो हम सभी सरकार के सलाहकार विभिन्न मंदिरों में उनके साथ उत्सव मनाने गए थे. उनकी मांगों को बातचीत के माध्यम से बिल्कुल हम मानेंगे.''
लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इन आश्वासनों से संतुष्ट हैं.
मनींद्र कुमार नाथ हिंदू-बौद्ध-ईसाई परिषद के कार्यवाहक महासचिव हैं. वो कहते हैं,''अंतरिम सरकार के गठन को दो महीने से ज्यादा बीत चुके हैं. लेकिन अब भी देश के विभिन्न इलाकों में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की घटनाएं सामने आ रही हैं. दुर्भाग्य से सरकारी तौर पर इन घटनाओं पर अंकुश लगाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. कुछ राजनीतिक दल तो इनको स्वीकार ही नहीं करना चाहते.''
मुनींद्र कहते हैं कि अगर ज़रूरत पड़ी तो बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिन्दू, बौद्ध और ईसाई मिलकर एक राजनीतिक दल भी बना सकते हैं.
मुनींद्र कहते हैं,''आपने देखा होगा कि इस देश में सनातनी जनता और छात्र घरों से बाहर निकले हैं. चटगांव में साधु-संतों की भी एक रैली आयोजित की गई थी. वहां अपनी दिक्कतों का जिक्र करने के लिए हजारों हिंदू अल्पसंख्यक जुटे थे. हमने दो नवंबर को पूरे बांग्लादेश में सभाएं और रैलियां आयोजित करने की अपील की है.''
एक तरफ़ अगर ज़मीनी स्तर पर प्रदर्शन हो रहे हैं तो दूसरी तरफ़ देश के बाहर भी बांग्लादेश के अल्पसंख्यक समुदाय की हालत लेकर आवाज़ें उठ रही हैं.
अमेरिका और भारत जैसे देशों ने इसके बारे कई बार सार्वजनिक तौर पर बयान जारी किया है.
कई हिंदू संगठन भी इस मामले को ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं, मसलन, ‘जेनो’ बांग्लादेश तो ख़िलाफ़ आर्थिक बॉयकॉट की माँग कर रहा है.
इस संगठन ने पिछले दिनों एक विमान की मदद से न्यूयॉर्क में एक बैनर लहराया था जिस पर बांग्लादेश की सरकार से हिंदुओं की रक्षा करने को कहा गया था.
इस वेबसाइट को चलाने वाले लोगों ने बीबीसी के बार-बार पूछने पर भी कुछ सवालों का कोई जवाब नहीं दिया.
इस संगठन की साइट पर विश्व हिंदू परिषद के कार्यों का ज़िक्र था. विश्व हिंदू परिषद उसी संघ परिवार का एक हिस्सा है जिससे भारतीय जनता पार्टी भी जुड़ी है.
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन वाशिंगटन में स्थित एक संस्था है. उन्होंने भी बांग्लादेश में चल रही हिंसक घटनाओं को लेकर अमेरिका में प्रदर्शन किए हैं.
इस संगठन बारे में कहा जाता रहा है कि उसे भारत के हिंदूवादी संगठनों और भारत सरकार से मदद मिलती रहती है.
समीर कालरा इस फ़ाउंडेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं और भारत सरकार से किसी तरह के संबंधों के दावों को ग़लत बताते हैं.
वीडियो कॉल पर उन्होंने मुझे बताया,'' हम एक स्वतंत्र संगठन हैं. हम किसी विदेशी सरकार के साथ तालमेल में काम नहीं करते हैं.''
समीर कालरा कहते हैं,''हम बांग्लादेश हिंदू, बौद्ध ईसाई एकता परिषद के साथ काम कर रहे हैं और वे जमीनी स्तर पर हमारे डेटा का मुख्य स्रोत रहे हैं. हमारी कोशिश रहती है कि अमेरिकी नेता इस हिंसा को समझें और बांग्लादेशी अंतरिम सरकार पर दबाव बनाएँ जिससे बांग्लादेश में हिंदू और अन्य अल्पसंख्यक सुरक्षित रह सकें.”
हिंसा, भय और अनिश्चितता की चर्चा के बीच, मैं ढाका में एक नौकरीपेशा व्यक्ति स्वरूप दत्त से मिला.
देर रात उनके घर पर बातचीत के दौरान उनसे मैंने पूछा कि बांग्लादेश में एक हिंदू नागरिक होने के नाते वह अपने और अपने परिवार का भविष्य कैसे देखते है?
उन्होंने कहा कि वे विरोध प्रदर्शनों का समर्थन करते हैं क्योंकि ''विरोध ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जिससे हम अपनी आवाज़ उठा सकते हैं.''
वे मानते हैं कि एक शांतिपूर्ण, सम्मानजनक और धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश की यात्रा आसान नहीं होगी.
स्वरूप दत्त कहते हैं, ''मैं एक आशावादी हूँ. यह एक खूबसूरत देश है. यहां के लोग मिलनसार और शांति चाहने वाले हैं. यहां के 99 प्रतिशत लोग बांग्ला बोलते हैं. इसे और भी बेहतर जगह क्यों न बनाया जाए? मुझे लगता है यह संभव है.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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