
अमेरिका के टेक्सस में 2019 में 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम में डोनाल्ड ट्रंप को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'अबकी बार ट्रंप सरकार' का नारा दिया था. अगले साल जब ट्रंप भारत आए तो अहमदाबाद में उनके स्वागत में 'नमस्ते ट्रंप' कार्यक्रम आयोजित हुआ.
विश्लेषकों ने इसे दो नेताओं के बीच गर्मजोशी वाले रिश्तों के तौर पर देखा. साल 2024 में प्रधानमंत्री मोदी फिर से सत्ता में आए, उधर ट्रंप ने भी सत्ता में वापसी की.
मीडिया में फिर दोनों नेताओं के रिश्तों के लेंस से भारत-अमेरिका संबंधों को देखा जाने लगा. मगर, पिछले लगभग छह महीनों में ऐसा लगा है कि दोनों नेताओं के बीच रिश्ते पहले जैसे नहीं हैं.
ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद इस बार कई देशों पर टैरिफ़ यानी व्यापार शुल्क लगाने की घोषणा की. ट्रंप का कहना है कि अमेरिकी बाज़ार में बाक़ी देशों से सामान सस्ते दामों पर आता है, जबकि अमेरिकी सामानों पर दूसरे देश अधिक शुल्क वसूलते हैं.
हालांकि, टैरिफ़ की घोषणा के बाद ट्रंप ने व्यापार समझौते पर बात करने के लिए इन देशों को 90 दिनों की छूट दी. मगर, 30 जुलाई को ट्रंप ने भारत पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने की घोषणा कर दी.
इसके अलावा ट्रंप ने रूस से तेल ख़रीदने पर पेनल्टी लगाने की भी बात कही. भारत पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा के कुछ ही देर बाद अमेरिका ने पाकिस्तान से एक समझौता किया.
अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ वहां के तेल भंडारों को विकसित करने की बात कही है. दोनों देशों के बीच व्यापार समझौता भी हो चुका है.
भारत-अमेरिका संबंधों के साथ ही भारत के व्यापारिक रिश्तों पर सवाल उठ रहे हैं. रूस से भारत के ऊर्जा रिश्ते कितने अहम हैं? व्यापार शुल्क भारत के लिए कितने गंभीर हैं?
भारत क्या राह अपना सकता है? प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर इसका क्या असर होगा? पाकिस्तान और अमेरिका के बीच हुआ तेल भंडार से जुड़ा समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है? और भारत-अमेरिका के बीच रिश्तों की इस दिशा को कैसे देखना चाहिए?
बीबीसी हिंदी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सवालों पर बात की.
उनके साथ चर्चा में शामिल हुए 'इंडियन काउंसिल फ़ॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस' की विज़िटिंग प्रोफ़ेसर शॉन रे, 'हिंदू बिज़नेस लाइन' की रेज़िडेंट एडिटर पूर्णिमा जोशी, पत्रकार ज़ुबैर अहमद, बीबीसी उर्दू के सीनियर न्यूज़ एडिटर आसिफ़ फ़ारुक़ी और दिल्ली से 'इंडिपेंडेंट एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट' के चेयरमैन नरेंद्र तनेजा.
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अमेरिका की ओर से भारत पर लगाए गए टैरिफ़ और इसके असर पर प्रोफ़ेसर शॉन रे का मानना है कि इसे दो तरह से अलग करके देख सकते हैं. पहला- शॉर्ट टर्म, दूसरा- लॉन्ग टर्म.
प्रोफ़ेसर शॉन रे कहती हैं, "शॉर्ट टर्म में निश्चित तौर पर निर्यात कम होगा. जो निर्यातक हैं उनकी आमदनी भी कम होगी. शुल्क के साथ हमारा प्राइस बढ़ जाएगा. इसके साथ ही थोड़ी अनिश्चितता भी है, क्योंकि जो व्यापार समझौता होने वाला था वह अभी तक हुआ नहीं है."
वह कहती हैं, "लॉन्ग टर्म इम्पैक्ट ज़्यादा अहम हैं, क्योंकि अगर ये शुल्क एक साल से ज़्यादा समय तक रहे तो सप्लाई चेन में बदलाव आ सकता है और भारत को डाइवर्सिफ़िकेशन करना होगा."
प्रोफ़ेसर रे का मानना है कि शॉर्ट टर्म में अमेरिकी टैरिफ़ का सबसे ज़्यादा असर कपड़े, दवाइयां, ऑटो पार्ट्स, झींगे और इंजीनियरिंग गुड्स जैसे उत्पादों पर पड़ेगा.

भारत-अमेरिका रिश्तों पर जब बात होती है तो हाल के समय में इसे दोनों देशों के नेताओं के बीच व्यक्तिगत रिश्तों के चश्मे से देखा जाता रहा है. लेकिन बीते कुछ समय में ऐसा बहुत कुछ हुआ है, जिसे भारत-अमेरिका के बीच अच्छे रिश्तों के तौर पर नहीं देखा गया.
तो क्या यह भारत सरकार के लिए एक झटका है? या इसे सामान्य नज़रिए से देखा जाना चाहिए?
'हिंदू बिज़नेस लाइन' की रेज़िडेंट एडिटर पूर्णिमा जोशी का मानना है कि हाल में जो कुछ भी हुआ उससे सरकार की काफ़ी 'फ़ज़ीहत' हुई है.
वह कहती हैं, "जिस तरह से डोनाल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान के साथ हमारी लड़ाई के दौरान ऐलान किया कि सीज़फ़ायर उन्होंने कराया है और इसके बाद बार-बार उन्होंने यह बात कही. इस पर प्रधानमंत्री को संसद में स्पष्टीकरण देना पड़ा."
"विपक्ष ने सवाल उठाया कि हमारे द्विपक्षीय मामले में अमेरिका के दख़ल को आपने कैसे अनुमति दी? बीजेपी, जो कि ख़ास तौर पर रक्षा मामलों में हमेशा हार्ड लाइन लेती है, वह थोड़ा बैकफ़ुट में थी."
व्यापार समझौते पर पूर्णिमा जोशी कहती हैं कि मोदी और ट्रंप, दोनों ही नेता 'प्रोसेस- ड्रिवेन' नहीं हैं; प्रधानमंत्री जब काम करते हैं तो उसमें विदेश मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय का बहुत दख़ल होता है और ख़ास तौर पर व्यापार समझौता, जो कि बहुत जटिल चीज़ है, उसमें मोदी के रिश्ते अगर ट्रंप के साथ अच्छे हैं तो भी कुछ किया नहीं जा सकता.
वह कहती हैं, "क्योंकि, अमेरिका जो चीज़ें हिंदुस्तान से चाहता है, वे हिंदुस्तान दे ही नहीं सकता. ट्रंप चाहते हैं कि हमारा कृषि क्षेत्र खोल दिया जाए, हमारा डेयरी सेक्टर खोल दिया जाए. ये ऐसी चीज़ें हैं जो हिंदुस्तान कर ही नहीं सकता. इसमें अगर सरकार चाहे भी तो वह सहमति नहीं दे सकती."
पूर्णिमा जोशी कहती हैं कि मोदी ने ट्रंप के लिए इतने बड़े कार्यक्रम किए, 'अबकी बार ट्रंप सरकार' कहा, उनको इतना मान दिया तो ट्रंप को लगा कि हिंदुस्तान के साथ डील करना बहुत आसान बात होगी.
पूर्णिमा जोशी कहती हैं, "ट्रंप ने जिस तरह से भारत पर टैरिफ़ लगाया है और रूस से तेल और रक्षा सामग्री ख़रीदने पर पेनल्टी लगाई, वह एक तरह से हमारी संप्रभुता पर भी हमला है. कोई बाहर का देश हमें कैसे बता सकता है कि हमें कहां से क्या चीज़ ख़रीदनी चाहिए."
पिछले कुछ समय में ट्रंप भारत-अमेरिका रिश्तों में टैरिफ़ और ट्रेड डील की बात कर रहे हैं. इसे अगर भारत के हितों को ध्यान में रखते हुए देखें तो क्या ट्रंप वाक़ई में ट्रेड की बात कर रहे हैं या भारत के रूस और चीन के साथ जो संबंध हैं उस पर निशाना साधा गया है?
इस पर पूर्णिमा कहती हैं, "रूस से तेल ख़रीदने पर भारत पर जो पेनल्टी लगी है, उसका कहीं पर कोई ज़िक्र नहीं है. वह यह नहीं बता रहे हैं कि कितनी पेनल्टी लगाएंगे. मुझे ऐसा लगता है कि व्यापार समझौते में इसे नेगोशिएटिंग टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा."
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अमेरिका और पाकिस्तान के बीच तेल भंडारों को लेकर एक समझौता हुआ. दोनों देशों के बीच ट्रेड डील की भी बात हुई. पाकिस्तान में इसे कैसे देखा जा रहा है, जबकि भारत में अभी ट्रेड डील भी नहीं हुई है और रिश्तों में गर्मजोशी को लेकर भी काफ़ी तल्ख़ टिप्पणियां हो रही हैं.
इस पर बीबीसी उर्दू के सीनियर न्यूज़ एडिटर आसिफ़ फ़ारुक़ी कहते हैं कि पाकिस्तान में इन समझौतों का स्वागत किया जा रहा है. पाकिस्तानी सरकार इसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण समझौता मान रही है. साथ ही इसे अमेरिका और अन्य देशों के साथ डिप्लोमैटिक रिलेशन के लिए भी बहुत बड़ी जीत मान रही है.
आसिफ़ फ़ारुक़ी कहते हैं, "पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों में काफ़ी बुरी स्थिति से गुज़री है. और अब सरकार दावा कर रही है कि वह एक टेकऑफ़ की स्थिति में आ गई है. इस मौक़े पर अगर पाकिस्तानी निर्यात को, जो कि 90 फ़ीसदी टेक्सटाइल है, बूस्ट मिलता है तो यह शायद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को बहुत मदद करेगा."
"इसके अलावा जो तेल भंडारों की बात है तो पिछले 20 सालों या शायद इससे भी ज़्यादा अरसे से पाकिस्तानी सरकार कोशिश कर रही है कि विभिन्न निजी कंपनियां और देश आएं और तेल भंडार या गैस भंडार पर काम करें. लेकिन सुरक्षा कारणों से और तकनीक या अन्य कारणों से कंपनियां नहीं आ रही थीं."
वह कहते हैं, "अब जबकि राष्ट्रपति ट्रंप ने ये बात बहुत ही खुले तौर पर कही है, तो पाकिस्तान को लग रहा है कि जो तेल और गैस के भंडार उसके पास हैं, अगर अमेरिका की कोई बड़ी कंपनी अपनी तकनीक के साथ आती है तो उसको एक्सपलोर करने में बहुत मदद मिलेगी."
"इसका मतलब यह होगा कि पिछले 20 सालों से पाकिस्तान में जो ऊर्जा संकट है उसको हल करने में भी मदद मिलेगी. ये बड़ी उपलब्धियां हैं, जिन्हें सरकार मानती है कि ये बहुत मदद करेंगी."
आसिफ़ फ़ारुक़ी बताते हैं कि पाकिस्तानी सरकार इसे अपनी राजनीतिक और कूटनीतिक जीत के तौर पर भी पेश कर रही है. क्योंकि भारत पर ज़्यादा टैरिफ़ लगा है. इसके अलावा भारत को लेकर ट्रंप जो भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उसे भी पाकिस्तानी सरकार अपनी जीत बता रही है.
वह बताते हैं, "पाकिस्तान में बहुत सीधे तौर पर कहा जा रहा है कि वॉर जीतने के बाद अब पाकिस्तान ने भारत को डिप्लोमैटिक फ़्रंट पर भी शिकस्त दे दी है."
क्या पाकिस्तान के पास बड़े तेल भंडार हैं?
अमेरिका-पाकिस्तान की तेल भंडार को लेकर हुई डील पर 'इंडिपेंडेंट एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट' के चेयरमैन नरेंद्र तनेजा का मानना है कि जब तक इस समझौते की सारी चीज़ें सामने नहीं आ जातीं, तब तक इसे डील क़रार नहीं देना चाहिए.
वह कहते हैं, "अमेरिका में सरकारी तेल कंपनियां नहीं होती हैं. वहां पर सारी कंपनियां प्राइवेट हैं, तो किस कंपनी ने डील की है और कब की है? जहां तक मेरी जानकारी है तो किसी कंपनी ने कोई डील नहीं की है. अमेरिकी राष्ट्रपति कहेंगे और कंपनियां पाकिस्तान आ जाएंगी, ऐसा अमेरिका में होता नहीं है. ये बहुत बड़ी कंपनियां हैं."
"अमेरिकी सरकार अपने इरादे ज़ाहिर कर सकती है कि पाकिस्तान जाकर काम करेंगे. लेकिन कंपनियां तभी जाएंगी जब उन्हें पहले से सुरक्षा हो. और दूसरी बात यह कि तेल के भंडार कहां मिले हैं? ट्रंप ने कहा है कि बड़े तेल भंडार हैं, तो ये कहां हैं और कितने बड़े हैं?"
नरेंद्र तनेजा कहते हैं कि जब तक ये सभी बातें स्पष्ट नहीं हो जाती हैं तो कोई भी कंपनी नहीं जाएगी.
वह कहते हैं, "पाकिस्तान कुछ समय से कह रहा है कि उसके पास गैस और तेल के बड़े भंडार हैं. ये तो तमाम सरकारें कहती हैं. म्यांमार और बांग्लादेश बहुत सालों से कह रहे हैं कि उनके पास बड़े भंडार हैं. लेकिन, ये भंडार तब तक मान्य नहीं होते जब तक अंतरराष्ट्रीय कंपनियां इसे प्रमाणित नहीं कर देतीं. ये कंपनियां वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित करती हैं और पूरी दुनिया उस डेटा को देख सकती है. अभी ऐसा कुछ हुआ नहीं है."
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नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "तेल की क़ीमत पूरी दुनिया में एक होती है, चाहे आप तेल का उत्पादन करते हों या बड़े उपभोक्ता हों. ग्लोबल सप्लाई सिस्टम में प्रतिदिन रूस का 50 लाख बैरल तेल आता है. सप्लाई सिस्टम में आने के बाद तेल की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती. ट्रंप 50 लाख बैरल तेल को टारगेट करते हैं और कहते हैं कि भारत भी इसे न ख़रीदे, चीन भी न ख़रीदे. हालांकि, नेटो का सदस्य तुर्की भी इसे ख़रीदता है और यूरोपीय संघ के तमाम सदस्य रूस से तेल ख़रीदते हैं."
"मान लेते हैं कि भारत, चीन या कोई अन्य देश तेल नहीं ख़रीदते हैं तो 50 लाख बैरल तेल ग्लोबल सप्लाई सिस्टम से गायब हो जाएगा. इसका नतीजा यह होगा कि तेल की क़ीमतें तुरंत ऊपर चली जाएंगी."
नरेंद्र तनेजा बताते हैं कि तेल की क़ीमतों का असर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.
वह कहते हैं, "दुनिया का सबसे बड़ा तेल का उपभोक्ता अमेरिका है. ऐसी स्थिति में तेल की क़ीमतें बढ़ेंगी. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी. भारत की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी. दरअसल, पूरी ग्लोबल इकोनॉमी को चोट पहुंचेगी."
नरेंद्र तनेजा कहते हैं कि भारत पहले रूस से केवल दो फ़ीसदी तेल ख़रीदता था. आज के समय में रूस से तेल इसलिए ख़रीदा जा रहा है क्योंकि रूस अच्छा डिस्काउंट देता है.
वह कहते हैं कि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा तेल का उत्पादक है, अगर अमेरिका ऐसा डिस्काउंट भारत को देने लगे तो भारत की कंपनियां वहां से तेल ख़रीद लेंगी.

प्रधानमंत्री मोदी की डिप्लोमेसी व्यक्तित्व से जुड़ी हुई बताई जाती है. अब भारत-अमेरिका संबंधों में विश्लेषक 'तल्ख़ी' की बात कह रहे हैं और यह भी बात हो रही है कि अगर इंस्टिट्यूशनल डिप्लोमेसी होती तो कुछ अलग होती. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे कैसे देखा जा रहा है?
इस पर लंदन में पत्रकार ज़ुबैर अहमद कहते हैं कि भारत और अमेरिका के बीच इंस्टिट्यूशनल स्तर पर रिश्ते गहरे हैं. इसे आगे बढ़ाने के लिए राजनेता अपने-अपने फ़ायदे के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं.
वह कहते हैं, "जब ट्रंप का पहला कार्यकाल था, उस वक़्त 'हाउडी मोदी' जैसी चीज़ें हुईं. चुनाव के समय इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री मोदी और ट्रंप, दोनों ने किया."
ज़ुबैर अहमद कहते हैं कि मीडिया एक ग़लती करता है और वह ये कि दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच गहरे रिश्तों से दोनों देशों के रिश्तों का अनुमान लगाने लगता है.
वह कहते हैं, "बाइडन का जो दौर था, उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाया. उन्होंने 2023 में मोदी को स्टेट विजिट दिया, जो कि ट्रंप ने भी नहीं दिया. जबकि दोनों के बीच इतनी गहरी दोस्ती बताई जा रही थी. मोदी के लिए रेड कारपेट बिछाने वाले बाइडन थे, ट्रंप नहीं थे. अब जब ट्रंप दोबारा सत्ता में आ गए हैं तो उन्हें मोदी जी की ज़्यादा ज़रूरत नहीं है."
ज़ुबैर अहमद बताते हैं कि अमेरिकी इस बात में विश्वास करते हैं कि 'जब आपसे हमें कोई फ़ायदा है तभी हम आपको फ़ायदा पहुंचा सकते हैं'.
ज़ुबैर अहमद कहते हैं, "ट्रंप ने कुछ देशों के साथ जो डील की है, सबसे कमिट करवाया है कि वे अमेरिका में निवेश करेंगे. ट्रंप को भारत से कुछ भी मिल नहीं रहा है. व्यक्तिगत स्तर पर अगर देखें तो दोनों देशों के रिश्तों में ट्रंप बाधा पहुंचा रहे हैं."
वह कहते हैं, "ये हो सकता है कि कुछ महीनों के लिए भारत को दिक्कत आए. अभी ट्रंप के साढ़े तीन साल बाकी हैं. मुझे ऐसा लगता है कि अभी पीएम मोदी सोच रहे होंगे कि ये समय हम निकाल दें. इसके लिए सब्र चाहिए. कई लोग ये मान रहे हैं कि ये जो दौर चल रहा है, इसके ख़त्म होने के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य हो जाएंगे और गहरे होंगे."
अब तक क्यों नहीं हुई डील और भारत के पास आगे क्या विकल्प?भारत में कई नेता कह रहे हैं कि इस पूरे प्रकरण में भारत को कड़ा रुख़ अपनाना चाहिए. क्या कूटनीति, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और व्यापारिक संबंधों में भारत वास्तव में पुशबैक कर सकता है?
इस पर प्रोफ़ेसर शॉन रे का मानना है कि भारत को अभी कोई पुशबैक नहीं करना चाहिए.
वह कहती हैं, "अमेरिका चाहता है कि कृषि और डेयरी क्षेत्र भारत खोल दे. हमने यूके के साथ भी समझौता किया है और हमने ये क्षेत्र नहीं खोले हैं. भारत अमेरिका को 18 फ़ीसदी निर्यात करता है, जो कि काफ़ी है. तो अभी हमें वेट एंड वॉच की स्थिति में होना चाहिए."
प्रोफ़ेसर रे कहती हैं कि पहले तो हमें देखना चाहिए कि डील में किन बातों पर सहमति बनती है, फिर आगे के क़दम उठाने चाहिए.
भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर हो रही देरी पर प्रोफ़ेसर रे कहती हैं ऐसे समझौते पर काफ़ी लंबे वक्त तक बातचीत होती है.
वह बताती हैं, "यूके के साथ हमने तीन साल तक बात की, फिर समझौता हुआ. ईयू के साथ हम 10 साल से अधिक समय से बात कर रहे हैं. ये समझौते बहुत अलग हैं. कुछ सामान आप निर्यात करना चाहते हैं, कुछ हम. डील ना हो पाने का कारण है कि दोनों पक्षों की मांगें पूरी नहीं हो पा रही हैं. उनकी भी कुछ घरेलू मजबूरियां हैं और हमारी भी."

पिछले कुछ सालों से कहा जा रहा है कि भारत ने तटस्थ रुख़ अपना कर रखा है. ख़ास तौर पर रूस और चीन के संदर्भ में मौजूदा ट्रंप प्रशासन को यह पसंद नहीं आ रहा है. तो क्या ट्रेड के बहाने भारत पर निशाना साधा जा रहा है?
ज़ुबैर अहमद कहते हैं, "जब बाइडन थे तब भी भारत के ऊपर दबाव था कि रूस की निंदा करें. अमेरिका ही नहीं, पश्चिम के सभी देश भारत से इस बात के लिए मायूस हैं कि भारत ने रूस की निंदा नहीं की, बल्कि भारत के साथ रूस के रिश्ते और भी गहरे होते जा रहे हैं. रूस से सस्ते दामों पर भारत का तेल ख़रीदना भी उन्हें पसंद नहीं आ रहा है."
ज़ुबैर का मानना है कि पश्चिमी देशों में भारत से नाराज़गी है. उनका मानना है कि अगर भारत रूस की निंदा नहीं करता है और यूक्रेन के साथ नहीं है तो इसका मतलब है कि भारत तटस्थ नहीं है.
वह कहते हैं, "ट्रंप रूस और पुतिन की तारीफ़ कर रहे थे. पश्चिमी देश परेशान थे कि ये क्या हो रहा है. अब पुतिन से ट्रंप मायूस हो रहे हैं क्योंकि वह जो सीज़फ़ायर कराना चाहते थे वह नहीं हुआ है."
ज़ुबैर कहते हैं कि ट्रंप चाह रहे हैं कि भारत भी पुतिन पर दबाव डाले.
वह कहते हैं, "अगर रूस और यूक्रेन के बीच सीज़फ़ायर हो जाता है तो ट्रंप फिर से पुतिन की तारीफ़ करने लगेंगे और भारत के साथ अगर रूस के अच्छे संबंध बरक़रार हैं तो उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा."
"लेकिन जो दूसरे यूरोपीय देश हैं वे स्थिर हैं. वे शुरू से कहते आ रहे हैं कि भारत का ये रवैया सही नहीं है."
ज़ुबैर अहमद का यह भी मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'भारत का क़द थोड़ा छोटा हुआ' है.
वह कहते हैं, "ख़ासकर पिछले दो साल में लग रहा था कि भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊपर उठा है, उसमें भारत का क़द थोड़ा छोटा हुआ है. पाकिस्तान के साथ संघर्ष में भी ये दिखा कि भारत के पक्ष में कोई भी पश्चिमी देश सीधा नहीं आया. इससे भारत को मायूसी ज़रूर हुई है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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