
अमेरिकी हवाई हमलों के बाद मध्य-पूर्व में हालात तेजी से बदल रहे हैं. इसी बीच इस पूरे मुद्दे पर पाकिस्तान के रुख को लेकर भी बहस छिड़ गई है.
पाकिस्तान ने हमले से एक दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को शांति का नोबेल पुरस्कार देने की आधिकारिक सिफारिश की थी.
इसके पीछे तर्क दिया गया कि ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान निर्णायक कूटनीति की और अहम नेतृत्व दिखाया, जिससे युद्ध के मुहाने पर खड़े दोनों देशों के बीच शांति स्थापित हुई.
वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान इसराइल और ईरान के बीच चल रहे संघर्ष में खुलकर इसराइल का विरोध और ईरान का समर्थन कर रहा था.

जानकारों का कहना है कि अमेरिका के इस जंग में आने के बाद पाकिस्तान रणनीतिक और कूटनीतिक तौर पर फंसता हुआ नज़र आ रहा है.
ईरान और पाकिस्तान करीब 909 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं और दोनों ही इस्लामिक देश हैं.
पाकिस्तान में 20 फ़ीसदी आबादी शिया मुस्लिमों की है. ये आबादी खुलकर ईरान का समर्थन करती है.
विदेश नीति के विश्लेषक माइकल कुगेलमैन ने एक्स पर लिखा है, "डोनाल्ड ट्रंप को पाकिस्तान ने नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित करने की घोषणा की थी. इस घोषणा के एक दिन बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर बमबारी की है.उन्होंने शांति का आह्वान भी किया..."
पाकिस्तान की दुविधा
ट्रंप के लिए नोबेल पुरस्कार की सिफ़ारिश का विरोध पाकिस्तान के भीतर भी हो रहा है.
पाकिस्तान की पूर्व राजनायिक और संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की पूर्व प्रतिनिधि रह चुकी मलीहा लोधी एक्स पर लिखती हैं, "जिन लोगों ने इसकी सिफ़ारिश की है, उन्हें पछताना चाहिए और पाकिस्तान के लोगों से माफ़ी मांगनी चाहिए."
पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के सदस्य साहिबज़ादा मुहम्मद हामिद रज़ा ने असेंबली में कहा, "आप ईरान के ख़िलाफ़ अपना एयरबेस और समंदर देने जा रहे हैं. इस पर अभी तक विदेश मंत्री का कोई बयान नहीं आया है. आपको तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है क्योंकि आपके तो विदेशों में फ्लैट हैं. पाकिस्तान में कोई मसला हुआ तो मुशर्रफ़ की तरह आपको भाग जाना है."
विदेश नीति के विश्लेषक माइकल कुगेलमैन ने एक्स पर लिखा है, "पाकिस्तान ने हाल ही में ईरान और अमेरिका दोनों से बात की है, तो वह मध्यस्थता के लिए अच्छी स्थिति में है. अमेरिकी हमलों और ट्रंप के शांति के प्रस्ताव ने इसकी ज़रूरत बढ़ा दी है. लेकिन इससे पाकिस्तान के प्रभाव को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा सकता है."
वह लिखते हैं, "पाकिस्तान ने ईरान और अमेरिका के बीच मध्यस्थता करने की इच्छा दिखाई थी लेकिन अब जब अमेरिका युद्ध में शामिल हो गया है, तो आसिम मुनीर का ट्रंप के साथ हालिया दोस्ताना व्यवहार और नोबेल शांति पुरस्कार का प्रस्ताव पाकिस्तान के लिए उल्टा पड़ सकता है."
अमेरिका के ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमलों के बाद पाकिस्तान की स्थिति को कर्नल (सेवानिवृत्त) मनीष ओझा एक अलग ही नज़रिये से देखते हैं.
कर्नल (सेवानिवृत्त) मनीष ओझा कहते हैं, "यह स्थिति पाकिस्तान के लिए ज़रा चुनौतीपूर्ण है. एक तरफ़ वह अमेरिका से बढ़ती निकटता के कारण सैन्य रूप से अमेरिका के साथ खड़ा दिखता है, दूसरी तरफ़ उसका ऐसा करना शायद उसके मित्र चीन को पसंद ना आए."
उनका मानना है, "पाकिस्तान का चीन में न केवल निवेश है बल्कि काफी हद तक दख़ल भी है. वह नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान और अमेरिका के संबंध बहुत ज़्यादा गहरे हों और विशेषकर तब जब इस युद्ध में वह ईरान का समर्थन करता दिख रहा है."
कर्नल ओझा बताते हैं, "पाकिस्तान की एक समस्या मुस्लिम उम्मा को लेकर भी है. इस्लामिक मुल्क होने के नाते पाकिस्तान से यह उम्मीद है कि वह ईरान के साथ खड़ा हो और अमेरिका के विरोध में दिखे. इसके चलते उसे मजबूरन ईरान के समर्थन में और अमेरिकी हमले के विरोध में वक्तव्य जारी करना पड़ा."
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इसराइल ने ईरान पर क़रीब 11 दिन पहले हमला किया. इसके बाद दोनों देशों के बीच जंग शुरू हो गई. जंग शुरू होने के बाद पाकिस्तान ने इसराइली हमले की बड़े पैमाने पर निंदा की.
इस बीच एक ईरानी जनरल मोहसिन रेज़ाई का सोशल मीडिया पर एक वीडियो क्लिप वायरलहुआ.
इसमें वो दावा कर रहे थे कि इसराइल अगर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, तो पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार से इसराइल को जवाब देगा.
इसके बाद सोमवार को पाकिस्तान की संसद में विदेश मंत्री इसहाक़ डारने जनरल मोहसिन रेज़ाई के वीडियो का जवाब दिया.
उन्होंने कहा, "मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं. हमारी तरफ़ से ऐसा कोई बयान नहीं दिया गया है कि हम इसराइल के ख़िलाफ़ परमाणु हथियार का इस्तेमाल करेंगे."
पाकिस्तान अभी तक ईरान पर हो रहे हमलों की जमकर आलोचना कर रहा था लेकिन अमेरिका के हमले के बाद क्या वास्तव में पाकिस्तान के लिए स्थिति पेचीदा हो गई है?
इसे लेकर सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज़ की फे़लो शालिनी चावला कहती हैं, "ईरान के कारण अब पाकिस्तानी फ़ौज का रणनीतिक महत्व बढ़ गया है जो कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के निकलने के बाद ख़त्म हो गया था."
वह बताती हैं, "मुझे पाकिस्तान पिसता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है क्योंकि ईरान से उसकी टेंशन पहले से ही है. पाकिस्तान इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ है कि अगर वह अमेरिकी खेमे में रहता है तो उसका महत्व भी बढ़ता है और उसके कई उद्देश्य पूरे होते हैं."
इस स्थिति को लेकर उनका मानना है कि पाकिस्तान यह दिखाने की कोशिश करेगा कि वह पूरी तरह से अमेरिका के साथ है.
वह कहती हैं, "पाकिस्तान का एकमात्र लक्ष्य यह है कि उसके रणनीतिक उद्देश्य पूरे होने चाहिए. जब तक यह मामला इसराइल और ईरान का था तब तक पाकिस्तान अपने मुस्लिम भाई की तरफ़ खड़ा हुआ. उसने बयान पर बयान दिए, लेकिन अभी वहां से बेहद कम बयान देखने को मिल रहे हैं."
शालिनी चावला बताती हैं, "अभी जिस स्थिति में पाकिस्तान है, वह यह चाहेगा कि उसे अमेरिकी सहयोग मिलता रहे. इसके बहुत सारे कारण हैं. इसमें प्रमुख कारण यही है कि पूरी अर्थव्यवस्था अमेरिकी सहयोग पर टिकी हुई है. दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि उसे लगता है कि अगर अमेरिका उसके साथ खड़ा है तो वह भारत के साथ डील करने में ज़्यादा सक्षम है."
वह कहती हैं, "ट्रंप और पाकिस्तानी आर्मी चीफ़ आसिम मुनीर के साथ लंच को लेकर अभी बहुत चर्चा हुई. इसमें भी पाकिस्तान अमेरिका के सामने ये मसला लेकर आया है कि अमेरिका उसकी सैन्य सहायता को फिर से शुरू करे. तो कुल मिलाकर पाकिस्तान का उद्देश्य बहुत ही साफ़ है और वह अपने हितों को लेकर ही काम करेगा."
इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र पर नज़र रखने वाले विश्लेषक डेरेक ग्रॉसमैन ने एक्स पर लिखाहै, "पाकिस्तान ईरान की मदद नहीं करेगा. उसके लिए अमेरिका-पाकिस्तान रणनीतिक साझेदारी को बनाए रखना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है और इस सप्ताह ट्रंप-मुनीर की मुलाक़ात के बाद यह स्थिति और भी बेहतर हो गई है."
अमेरिका या ईरान?
इसराइल और ईरान के बीच चल रही जंग में जब से अमेरिका ने प्रवेश किया है, पाकिस्तान के एयरबेस के प्रयोग को लेकर चर्चा बढ़ गई है.
क्या ऐसा हो सकता है कि अमेरिका ईरान के खिलाफ़ पाकिस्तान की तरफ़ से मोर्चा खोलेगा?
अंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषज्ञ स्वस्ति राव कहती हैं, "पाकिस्तान हमेशा ही डबल गेम खेलता है लेकिन इस बार वह इस बात का अंदाज़ा नहीं लगा पाया कि ट्रंप के नज़दीकी सर्किल में क्या चल रहा है, नहीं तो वह नोबेल के लिए नामित कर इस तरह की ग़लती न करता."
वह बताती हैं, "जहां तक पाकिस्तान में बेस के प्रयोग की बात है तो अमेरिका के पास मध्य पूर्व में पहले से ही कई बेस हैं. वह इसका तब तक प्रयोग नहीं करेगा जब तक स्थिति इतनी विकट नहीं हो जाती कि पाकिस्तान की तरफ़ से मोर्चा खोलने की ज़रूरत पड़े. इसकी इजाज़त पाकिस्तान भी बहुत जल्दी नहीं देगा."
वह मानती हैं, "जहां तक पाकिस्तान और ईरान के संबंधों की बात है तो पाकिस्तान ने हमेशा संतुलन का खेल खेला है. मध्य पूर्व के हर देश ने केवल औपचारिकता निभाई है. सभी ने केवल निंदा की है लेकिन ईरान के साथ कोई नहीं आया है. जहां तक पाकिस्तान की बात है, वह अपनी गेंद कभी भी एक ही टोकरी में नहीं रखेगा."
पाकिस्तान-ईरान पड़ोसी मुल्क हैं. पाकिस्तान सुन्नी बहुल इस्लामिक देश है और ईरान शिया बहुल.
पड़ोसी होने के बावजूद दोनों देशों के बीच संबंध अच्छे नहीं रहे हैं. सीमा पर दोनों देशों के बीच अक्सर झड़पें होती रहती हैं.
स्वस्ति राव कहती हैं, "अब सारी बातें सिर्फ़ इस पर निर्भर हैं कि इस हमले के बाद ईरान किस तरह से जवाबी हमला करता है. अगर वह मिसाइल हमला करता है तो अमेरिका कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा लेकिन अगर यह लड़ाई बढ़ती है तो फिर पाकिस्तान की भूमिका बढ़ जाएगी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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