हर लेखक अपने जीवन में उम्मीदों की एक दीवार खड़ी करता है. उस दीवार में रॉयल्टी की एक खिड़की रहती है. वह खिड़की अक्सर बंद रहती है.
लेकिन इस बार वह खिड़की खुली है और उसके खुलने की आवाज़ ने हिंदी साहित्य की दुनिया में एक नई बहस छेड़ दी है.
हिंदी के शीर्ष कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को 6 महीने से भी कम समय में बिकी उनकी चार किताबों के लिए, 30 लाख रुपये की रॉयल्टी दिए जाने की ख़बर ने सबको चौंका दिया है.
इन किताबों के प्रकाशक 'हिन्द युग्म' ने पिछले सप्ताह रायपुर में, विनोद कुमार शुक्ल पर ही केंद्रित एक कार्यक्रम में उन्हें 30 लाख रुपये की रॉयल्टी का चेक सौंपा.
विनोद कुमार शुक्ल ने बीबीसी से कहा, "पहली बार प्रकाशकीय ईमानदारी से भरे प्रकाशक के हाथों मेरी किताब पाठकों तक पहुंची है. इस रॉयल्टी ने मेरी उस धारणा को मजबूत किया है कि हिंदी में पाठकों की कोई कमी नहीं है. पहले पाठक उस तरह से दिखते नहीं थे. अब पाठक, अब किताब पढ़ने वाले, जैसे बाहर निकल आए हों. अब वो दिखते हैं. यह सब देखना, उसे महसूस करना सुखद है."
'हिन्द युग्म' के संस्थापक शैलेश भारतवासी के अनुसार इस साल एक अप्रैल से अब तक विनोद कुमार शुक्ल की अकेले एक उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की लगभग 90 हज़ार प्रतियां बिक चुकी हैं. यानी हर दिन इस उपन्यास की औसतन 500 से भी अधिक प्रतियां बिकी हैं. इसके अलावा उनके तीन कविता संग्रह की भी लगभग 6 हज़ार प्रतियां बिकी हैं.
शैलेश भारतवासी का दावा है कि किताबों की हर खुदरा और थोक बिक्री के आंकड़े को वे लेखक के साथ साझा करते हैं और यह बिलवाइज़, दिनवार और पार्टीवाइज़ यानी ख़रीदारवार होता है. 2021-22 से हिन्द युग्म एक सॉफ़्टवेयर की मदद से हर किताब की प्रत्येक बिक्री के सभी विवरण की रिपोर्ट, रॉयल्टी के साथ लेखक को भेजता है. इस विवरण में प्रत्येक बिक्री, प्रत्येक वापसी, प्रत्येक रीप्रिंट का ज़िक्र होता है.
शैलेश भारतवासी ने बीबीसी से कहा, "एक साल में हिंदी की सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब का रिकॉर्ड 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' के ही नाम है. 6 महीने में लगभग 90,000 प्रतियाँ बिकी हैं तो मुझे लगता है कि सालभर में 1 लाख 80 हज़ार से 2 लाख प्रतियाँ बिक जानी चाहिए. इससे पहले नीलोत्पल मृणाल की 'डार्क हॉर्स' की 2 लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं."
हालांकि हिंदी के कई लेखकों को अब भी 30 लाख रुपये रॉयल्टी की रकम दिए जाने पर भरोसा नहीं हो रहा है.
अपने पहले ही उपन्यास 'कलि-कथा वाया बाइपास' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कथाकार अलका सरावगी इस बात से चकित हैं कि इतनी रॉयल्टी किसी हिंदी लेखक को मिल सकती है.
अलका सरावगी खुशी जताती हुई कहती हैं, "आम तौर पर हालात यही हैं कि यदि परिवार किसी लेखक पर निर्भर हो तो दो वक़्त की रोटी भी न मिले! मैं भी उन्हीं की जमात में हूँ. हिंदी का समाज बहुत बड़ा है. उसमें पढ़नेवाले भी हैं, यह बात दिल जोड़नेवाली है. दूसरे प्रकाशक क्यों नहीं हिन्द युग्म से सीखते और ईमानदारी से लेखक को उसका भुगतान देते हैं? उम्मीद है कि अब माहौल बदलेगा."
वहीं अपनी किताबों की रॉयल्टी को लेकर पिछले कुछ सालों से मुखर रहे दर्जन भर कहानी संग्रह, 5 उपन्यास और 'जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ' जैसे कई चर्चित नाटकों के लेखक असग़र वजाहत को भी इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "रॉयल्टी देना प्रकाशक के लिए ज़रूरी है. जितनी क़िताबें बिकती हैं, उतनी रॉयल्टी देगा. ये जो 30 लाख वाली रॉयल्टी है, उसका हिसाब मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है. हो सकता है, सही हो. हो सकता है न हो. हां, ये ख़ुशी की बात है कि विनोद जी को 30 लाख रुपये मिले. वो इससे ज़्यादा डिज़र्व करते हैं. उनकी रचनाएं अमूल्य हैं. उन्हें इससे भी अधिक रॉयल्टी मिले तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा."
सवाल रॉयल्टी काविनोद कुमार शुक्ल की पहली किताब 'लगभग जयहिंद' 1971 में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद से उनके 10 कविता संग्रह, 6 उपन्यास, 6 कहानी संग्रह, कई अनुवाद और दूसरी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.
लेकिन साहित्य अकादमी, पेन नोबाकोव और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल की किताबों की रॉयल्टी का मुद्दा पहली बार 2022 में सामने आया.
दरअसल अपनी एक फ़िल्म के सिलसिले में रायपुर पहुँचे अभिनेता-लेखक मानव कौल ने विनोद कुमार शुक्ल से मुलाक़ात के बाद इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट लिखी थी.
इस पोस्ट में उन्होंने लिखा कि इस देश के सबसे बड़े लेखक विनोद कुमार शुक्ल को पिछले साल भर में उनके दो प्रमुख प्रकाशकों, वाणी प्रकाशन से 6 हज़ार रुपये और राजकमल प्रकाशन से 8 हज़ार रुपये यानी कुल 14 हज़ार रुपये मिले हैं.
मानव कौल की इस टिप्पणी के बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो सामने आया, जिसमें विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि उनकी किताबें जैसे बंधक हो गई हैं और वे उन्हें मुक्त कराना चाहते हैं.
विनोद कुमार शुक्ल की अधिकांश किताबें राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी. उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों संस्थाएँ उनके साथ 'ठगी' कर रही हैं.
उन्हें बेहद कम रॉयल्टी दी जा रही है, उनकी किताबों के ई-बुक संस्करण उनकी सहमति के बिना प्रकाशित किए जा रहे हैं, वे लंबे समय से ठगे जा रहे हैं और अब इन दोनों प्रकाशनों से स्वतंत्र होना चाहते हैं.
इसी तरह उन्होंने आरोप लगाया कि वाणी प्रकाशन से भी उन्हें रॉयल्टी और बिक्री का स्पष्ट विवरण नहीं मिला. उन्होंने अनुबंध समाप्त करने के लिए कई पत्र लिखे, लेकिन इसके बावजूद वाणी प्रकाशन ने उनकी किताबें छापना बंद नहीं की.
इस विवाद का असर ये हुआ कि वर्ष भर में जितनी रकम राजकमल प्रकाशन बतौर रॉयल्टी विनोद कुमार शुक्ल को देता था, उससे लगभग तीन गुना अधिक रकम, हर महीने देना शुरू किया. यह सिलसिला जारी है.
दूसरी ओर इस मामले पर सफाई देते हुए वाणी प्रकाशन के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने माना था कि विनोद कुमार शुक्ल ने प्रूफ़ की गलतियों का हवाला दिया था और 2016 में पत्र लिख कर कहा था कि अगला संस्करण उनकी जानकारी के बिना न छापें. अरुण माहेश्वरी का कहना था कि वह पूर्ण रूप से कोशिश कर रहे हैं कि यह मधुर संबंध बना रहे.
विनोद कुमार शुक्ल कहते हैं, "वाणी प्रकाशन से बहुत पहले ही मैंने सभी किताबों के अनुबंध समाप्त कर दिये हैं. मेरी किताबों का प्रकाशन और बिक्री तत्काल बंद करने के लिए कई बार उन्हें लिख चुका हूं. वर्षों से उनसे रॉयल्टी भी स्वीकार नहीं करता. मैं उनके व्यवहार से बहुत दुःखी हूँ. उनका व्यवहार शोषण और क्रूरता के बहुत करीब लगता है."
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विनोद कुमार शुक्ल बताते हैं कि 1996 में 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' को छापने के लिए वाणी प्रकाशन के साथ अनुबंध हुआ था.
इसके अलावा दो और किताबें वाणी से प्रकाशित हुईं लेकिन 2021 तक यानी 25 सालों में कुल 1,35,567 रुपये मुझे रॉयल्टी के रूप में मिले. यानी हर साल मुझे औसतन 5,422 रुपये मिले हैं.
इसके उलट हिन्द युग्म ने महज 6 महीनों में 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की लगभग 90 हज़ार प्रतियां बेची हैं और मुझे 30 लाख रुपये की रॉयल्टी दी है.
लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की किताबों के एक अन्य प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के निदेशक अशोक माहेश्वरी रॉयल्टी से जुड़े सवालों में अब नहीं उलझना चाहते.
हमने जब लेखक की ओर से लगाए हुए आरोपों के बारे में उनसे सवाल किया तो उनका कहना था कि ये शैलेश भारतवासी, हिन्द युग्म और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की उपलब्धि को सेलिब्रेट करने का समय है.
अशोक माहेश्वरी का कहना है, "यह केवल उनका नहीं, हमारी भाषा का हासिल है और यह बदलते पाठकीय माहौल और बिक्री के बदलते पैटर्न का परिचायक है. जब भी किसी भाषा में कोई किताब बाज़ार में हलचल पैदा करती है तो उसका सकारात्मक असर किसी न किसी स्तर पर पूरे बाज़ार पर पड़ता है."
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, "हिंदी किताबों की बिक्री के पैटर्न में बदलाव को हम समझते हैं लेकिन अभी उस पर बात करने से अच्छा होगा कि हम सब अपनी भाषा की एक अनूठी किताब की महत्वपूर्ण उपलब्धि को बड़े स्तर पर सेलिब्रेट करें. सफलता की इस कहानी को दुनिया को बताएँ. हमारी भाषा में पढ़ने का मिजाज कैसे बदल रहा है, किताबों की दुनिया कैसे किस ढंग से बदल रही है, प्रकाशक तकनीक की मदद से बिक्री के बिखरे तंत्र को कैसे एक नई दिशा दे रहे हैं और नए पाठकों तक पहुँच रहे हैं, इन सब पर बात करने का समय है."
हालांकि कवि और गीतकार आलोक श्रीवास्तव का कहना है कि विनोद कुमार शुक्ल के बहाने ही सही, रॉयल्टी पर बात निकली है तो दूर तलक जानी चाहिए.
वे कहते हैं कि उनकी एक लोकप्रिय पुस्तक की बिक्री की सही संख्या, देश के एक बड़े प्रकाशक संस्थान द्वारा उनसे छुपाई गई.
पुस्तक की जो प्रतियाँ उनके द्वारा या उनकी जानकारी में परिचितों ने खरीदी, प्रकाशक द्वारा बताई गई संख्या उसकी 25 फ़ीसदी भी नहीं थी.
वही किताब जब दूसरे प्रकाशक को दी तो उसने 1500 प्रतियों की रॉयल्टी 6 महीने में ही दे दी. नया प्रकाशक अब उसी पुस्तक का दूसरा संस्करण निकाल रहा है.
आलोक श्रीवास्तव कहते हैं, "दरअसल, लेखक से उसके हक़ की रॉयल्टी चुराने वाले प्रकाशक, सिर्फ़ उसकी रॉयल्टी नहीं चुराते, एक लेखक को मिलने वाला मान, सम्मान, उसका नाम और प्रतिष्ठा भी चुरा लेते हैं. इस चोरी की जितनी कठोर सज़ा सुनिश्चित की जाए, कम है."
वे कहते हैं कि ऐसे प्रकाशकों के कारण ही, हिंदी में पूर्णकालिक लेखकों का अभाव है.
'लेखक हैं लेकिन करते क्या हैं?'हिंदी समाज में यह जुमला बरसों से दुहराया जाता रहा है कि आप लेखक हैं यह तो ठीक है, लेकिन करते क्या हैं?
असल में हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी भाषाओं में से है, तो भी हिंदी में उंगलियों पर भी गिनने लायक ऐसे लेखक नहीं हैं, जो केवल लेखन से अपना जीवन-यापन कर सकें.
इसका उत्तर जटिल लेकिन स्पष्ट है कि हिंदी में लेखन को पेशेवर गतिविधि के रूप में आज भी मान्यता नहीं मिली है.
अधिकतर हिंदी लेखक विश्वविद्यालयों में शिक्षक, सरकारी सेवा में अधिकारी या पत्रकार हैं. लेखन उनकी आजीविका नहीं, 'साइड एक्टिविटी' होती है.
पत्रकार और कथाकार गीताश्री का कहना है कि हिंदी प्रकाशन जगत की स्थिति विडंबनापूर्ण है.
दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी में किताबों का व्यवसाय अव्यवस्थित और अक्सर अपारदर्शी है.
अधिकांश हिंदी लेखक यह तक नहीं जानते कि उनकी कितनी प्रतियां बिकीं, या कब दोबारा प्रिंटिंग के लिए गई.
हिंदी साहित्यिक समाज में लेखक और प्रकाशक के संबंध कभी साझेदारी जैसे नहीं रहे. लेखक अक्सर उस परंपरा का हिस्सा है जिसे 'आभारपूर्ण याचक' की तरह प्रस्तुत किया जाता है. यानी लेखक को खुशी होनी चाहिए कि उसकी किताब छप गई.
हालांकि हिन्द युग्म के निदेशक शैलेश भारतवासी का दावा है कि दिव्य प्रकाश दुबे और नीलोत्पल मृणाल तो हिन्द युग्म के ही दो पूर्णकालिक लेखक हैं.
उनका मानना है कि अब स्थिति बदल रही है और लेखन को युवा बतौर करियर भी अपना सकते हैं.
शैलेश कहते हैं, "इसके लिए सबसे ज़्यादा उसे अपने लिखे पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की सफलता ने तो इसे और प्रमुखता से सिद्ध कर दिया है कि अच्छे लिखे का कोई विकल्प नहीं."
वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी भी मानते हैं कि हिंदी में ऐसे कई लेखक हैं, जिन्हें मसीजीवी कह सकते हैं.
वे कहते हैं, "लेखक-प्रकाशक संबंध अन्योन्याश्रित है. नये लेखक भी हमारे लिए उतने ही आदरणीय और सम्मान रखते हैं जितना कोई भी लेखक. एक प्रकाशक की परिभाषा में 'अहसान' शब्द नहीं है. हाँ 'अधिकार' शब्द का हम सम्मान करते हैं."
अरुण माहेश्वरी के अनुसार, "सारे लेखक सफल हो सकें, इसकी गारंटी नहीं है. गारंटी है, अपने लेखन के करिश्में से वह पाठकों के बीच अपना स्थान बनाए और ऐसा लिखे, जिसका कैनवस बड़ा हो और सभी वर्ग उसमें शामिल हों तभी नवोदित लेखक को लेखन को करियर बनाने पर विचार करना चाहिए."
किताबों का तलघर बनाम उम्मीद की खिड़कीहालांकि पत्रकार और कथाकार, गीताश्री का कहना है कि हिंदी में प्रकाशकों ने ऐसी स्थिति नहीं बनने दी है कि कोई युवा इसे करियर के रूप में अपना सके.
लेखक ने अगर प्रकाशक से रॉयल्टी मांग दी तो फिर प्रकाशक किताबें नहीं छापता. यहां तक कि पूर्व प्रकाशित किताबें डंप कर दी जाती हैं.
वे कहती हैं, "2022 में विनोद जी की रॉयल्टी को लेकर जब सवाल उठे तो मैंने भी अपनी रॉयल्टी की बात की. मेरा कई साल से रुका हुआ पैसा आया. मगर उसके बाद क्या हुआ? मेरी किताबें कहीं नहीं दिखती. वे धीरे -धीरे मार दी जाएँगी. पहली बार देखा कि कोई प्रकाशक अपनी किताबों की हत्या भी कर सकता है. हर प्रकाशक के हिस्से एक तलघर है, जहां किताबें दफ़्न कर दी जाती हैं."
'वैधानिक गल्प' और 'कीर्तिगान' जैसे चर्चित उपन्यासों के लेखक चंदन पांडेय का भी कहना है कि ऐसा वातावरण निर्मित हो कि लेखक रॉयल्टी से अपनी आजीविका चलाए, वह वातावरण लगभग नष्ट कर दिया गया है.
चंदन पांडेय कहते हैं, "किताबों के अलावा हर इंडस्ट्री में ऐसी एजेंसी सक्रिय हैं, जो उत्पादक और विक्रेताओं से अलग बाज़ार का हाल और बिक्री के आंकड़ों की सूचना, आधिकारिक तौर पर इकट्ठा करती हैं और प्रस्तुत करती हैं. ऐसी एजेंसियों का निर्माण हो, जो हर महीने, तिमाही, छमाही और सालाना अवसरों पर किताब की बिक्री का आंकड़ा लेखकों को बताए. इस मोर्चे पर प्रकाशकों के बताए आंकड़े अविश्वसनीय हो चुके हैं."
हालांकि कवि आलोक श्रीवास्तव को भरोसा नहीं है कि आने वाले दिनों में ऐसी किसी एजेंसी का निर्माण हो सकेगा, जो किताबों की बिक्री के सही आंकड़े पेश करेगी.
लेकिन विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख की रॉयल्टी दिये जाने को वे हिंदी लेखकों के लिए एक बड़ी उम्मीद की तरह देखते हैं.
आलोक श्रीवास्तव कहते हैं, "अब जब यह खिड़की खुल गई है, तो हवा और रोशनी के साथ एक विश्वास भी भीतर आया है कि हिंदी किताबें भी बड़े सपने देख सकती हैं. और शायद यही वह क्षण है, जब हिंदी का पाठक वर्ग भी पहली बार अपने पूरे कद में दिखाई देता है. काश कि यह खिड़की ऐसी ही खुली रहे!"
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