पिछले दिनों जब राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया तो कई हलकों में कहा गया कि ऐसा भारत को रूस का कच्चा तेल न ख़रीदने के लिए बाध्य करने के उद्देश्य से किया गया था.
अमेरिकी सीनेटर लिंडसे ग्राहम ने तो यहाँ तक कहा कि "रूसी तेल को ख़रीद कर भारत व्लादिमीर पुतिन की युद्ध मशीनरी को बढ़ावा दे रहा है."
यह पहली बार नहीं था जब अमेरिका ने भारत की नीति को प्रभावित करने की कोशिश की.
1998 में भारत ने जब परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने की घोषणा की.
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भारतीय परमाणु कार्यक्रम से जुड़े राजनयिक टी.पी. श्रीनिवासन ने एक इंटरव्यू में बताया था, "क्लिंटन ने वॉशिंगटन में भारतीय दूतावास को धमकी भरे लहजे में संदेश भेजा, 'मैं बर्लिन जा रहा हूँ. वहाँ तक पहुँचने में मुझे छह घंटे लगेंगे. अगर तब तक भारत सरकार बिना शर्त सीटीबीटी पर दस्तख़त कर देती है तो मैं कोई प्रतिबंध नहीं लगाऊँगा'."
''प्रधानमंत्री कार्यालय ने भारतीय राजदूत नरेश चंद्रा से कहा कि वो तब तक कोई प्रतिक्रिया न दें जब तक भारत अगले दिन दोपहर तक बाक़ी बचे परमाणु परीक्षण पूरे नहीं कर लेता."
"13 मई को सरकार ने घोषणा की कि अब वो कोई परमाणु परीक्षण नहीं करेगी और सीटीबीटी पर दस्तख़त करने के लिए तैयार है.''
कई दिनों तक पर्दे के पीछे चली कूटनीति और जसवंत सिंह-स्ट्रोव टालबॉट की कई मुलाक़ातों के बाद भारत अमेरिका को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गया.
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साल 2003 की होली पर जब अटल बिहारी वाजपेयी अपने निवास 7 रेसकोर्स रोड के लॉन में आए तो उनके मंत्रियों और शुभचिंतकों ने उन्हें घेर लिया. किसी ने उनके सिर पर पगड़ी रख दी. उनके मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने सारी औपचारिकता किनारे रखकर ढोलक की ताल पर एक होली गीत गाना शुरू कर दिया.
लोगों के अनुरोध पर वाजपेयी ने भी अपने पैर और हाथ हिलाकर नाचने की कोशिश की. प्रधानमंत्री के रूप में वो पाँच साल पूरे कर चुके थे. 79 वसंत देख चुके वाजपेयी की चाल धीमी पड़ गई थी, लेकिन उन्होंने तला हुआ खाना और चीनी छोड़कर अपना वज़न चार किलो कम कर लिया था. वो आत्मविश्वास से भरे दिखाई देते थे.
अभिषेक चौधरी ने हाल ही में प्रकाशित अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी 'बिलीवर्स डिलेमा' में लिखा है, "वाजपेयी कश्मीर को हल करने की कोशिश करना चाहते थे, लेकिन इराक़ पर अमेरिका के संभावित हमले ने इसमें कुछ मुश्किलें पैदा कर दी थीं. अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश अपने देश को इराक़ के सामूहिक विनाश के हथियारों के कथित ख़तरे से बचाना चाहते थे."
"शुरू में वाजपेयी ने बुश को संदेह का लाभ देते हुए इराक़ से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का पालन करने और सामूहिक विनाश के हथियार नष्ट करने का अनुरोध किया."
संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों ने इराक़ में 300 स्थानों का निरीक्षण किया, लेकिन सामूहिक विनाश के हथियारों का कोई सबूत नहीं मिला. इसके बावजूद बुश के इरादों में कोई कमी नहीं आई.
पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने बिना लाग-लपेट के कहा, "तालिबान को सत्ता से हटाना ही काफ़ी नहीं है. इससे इस्लामी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ बदला लेने का अमेरिका का मक़सद पूरी तरह शांत नहीं हुआ है."
हालाँकि, दुनिया के कई देशों ने इसे फ़िज़ूल की लड़ाई माना, जिसका कोई औचित्य नहीं था और जो ख़राब ख़ुफ़िया जानकारी पर आधारित थी.
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, "भारत को इस लड़ाई से फ़ायदे से कहीं ज़्यादा नुक़सान होने वाला था, क्योंकि भारत खाड़ी के तेल पर पूरी तरह निर्भर था और चुनावी वर्ष में बढ़ती हुई मुद्रास्फीति किसी भी सरकार के लिए एक बुरी ख़बर थी."
''इस संकट का असर यह हुआ कि सरकार को तेल क्षेत्र के रणनीतिक महत्व का अंदाज़ा हो गया. यही वजह थी कि हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम कंपनी के निजीकरण को रोक दिया गया. खाड़ी में काम कर रहे 40 लाख भारतीयों की सुरक्षित वापसी की चिंता भी सरकार को सताने लगी."
"गुजरात दंगों के बाद भारत में रह रहे मुसलमान बग़दाद पर अमेरिकी क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ अपना विरोध ज़ोर-शोर से और खुले तौर पर ज़ाहिर कर रहे थे.''

इस बीच अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव रखा, जिसमें माँग की गई कि इराक़ 17 मार्च तक अपने सभी सामूहिक विनाश के हथियार सौंप दे.
जीन एडवर्ड स्मिथ अपनी किताब 'बुश' में लिखते हैं, "जिस दिन इस प्रस्ताव पर मतदान होना था, अमेरिका ने इसे वापस ले लिया क्योंकि उसे डर था कि मतदान में उसकी हार होगी. दो दिन बाद बुश ने इराक़ पर हमला बोल दिया."
''उन्होंने अपने आप को ईश्वर की इच्छा पूरी करने वाला व्यक्ति बताया, जो इराक़ की तानाशाही को दूर कर उसके स्थान पर पश्चिमी देशों जैसा प्रजातंत्र लाना चाहता था. लेकिन कई देशों ने इराक़ के ख़िलाफ़ अमेरिका की लड़ाई में शामिल होने से इंकार कर दिया.''
हमले से पहले भारतीय संसद में सरकार पर दबाव डाला गया कि वो साफ़-साफ़ कहे कि 'किसी देश में शासन बदलने के लिए महाशक्ति द्वारा ताक़त का इस्तेमाल करना ग़लत है और इसका समर्थन नहीं किया जा सकता.'
इसके बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा, "इराक़ में हो रही सैनिक कार्रवाई को उचित नहीं ठहराया जा सकता."
अगले दिन बुश ने वाजपेयी को फ़ोन कर अनुरोध किया कि वो भारत के विरोध को थोड़ा नर्म कर दें.
पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपनी आत्मकथा 'रेलेंटलेस' में लिखा, "जब अमेरिका ने इराक़ पर हमला किया तो भारत में संसद का सत्र चल रहा था. कांग्रेस पार्टी दुनिया को दिखाना चाहती थी कि वो अमेरिकी विरोधी है, इसलिए उसने ज़ोर दिया कि संसद अमेरिका की इस कार्रवाई की निंदा करे, वरना वो संसद नहीं चलने देगी."
"निजी तौर पर मैं इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ था. इसलिए नहीं कि मैं इराक़ में अमेरिका की कार्रवाई का समर्थन कर रहा था, बल्कि इसलिए कि संसद के प्रस्ताव से कहीं सरकार की नीति के लचीलेपन का दायरा संकुचित न हो जाए."
"बाद में संसद को चलाने के लिए हमने वो प्रस्ताव पारित किया जिसमें हमने हिंदी के 'निंदा' शब्द का प्रयोग किया, लेकिन अंग्रेज़ी में 'डिप्लोर' शब्द का इस्तेमाल किया गया, जो 'निंदा' से कम तीव्रता का शब्द है."
अमेरिका-भारत संबंधों में एक और मुश्किल आ खड़ी हुई. मई में वॉशिंगटन यात्रा के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से अमेरिका ने अनुरोध किया कि युद्ध के बाद भेजे जाने वाली स्टेबलाइज़ेशन फ़ोर्स में भारत अपने सैनिक भेजे.
मिश्रा इसके पक्ष में थे. इससे पहले मिश्रा 'इस्लामी आतंकवाद' से लड़ने के लिए भारत-अमेरिका-इसराइल गठजोड़ की वकालत करते आए थे.
जून 2003 में अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने भी अमेरिकी उपराष्ट्रपति से मुलाक़ात में भारतीय सैनिक भेजने की भारत की इच्छा के संकेत दिए थे.
दरअसल, अमेरिका चाहता था कि भारत और पाकिस्तान दोनों इस शांति सेना में अपने सैनिक भेजें. भारत से ख़ास तौर पर कहा गया कि वो उत्तरी इराक़ में प्रशासन चलाने के लिए अपनी एक डिवीज़न सेना भेजे.
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, "भारतीय प्रेस का एक वर्ग चाहता था कि भारत यह प्रस्ताव स्वीकार कर ले, क्योंकि इससे भारत-अमेरिका संबंधों में नाटकीय ढंग से बदलाव आ जाता. इसकी तैयारी भी शुरू हो गई."
''भारत में अमेरिकी दूतावास ने बयान जारी कर कहा कि अमेरिका शांति सेना में भारत की भागीदारी चाहता है, क्योंकि भारतीय सेना को शांति बहाल रखने का अच्छा-ख़ासा अनुभव है, उनकी छवि अच्छी है और उनकी संख्या भी पर्याप्त है. भारतीय सेना ने उन इकाइयों को भी शॉर्टलिस्ट कर लिया जिन्हें इस मिशन पर भेजा जाना था.''

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बाद में एक इंटरव्यू में उस समय पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त और बाद में विदेश सचिव बने शिवशंकर मेनन ने कहा, "जसवंत सिंह और ब्रजेश मिश्रा के अलावा आडवाणी और भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सर भी भारतीय जवानों को इराक़ भेजने के पक्ष में थे. अमेरिका-विरोधी जॉर्ज फ़र्नांडिस इसका खुलेआम समर्थन तो नहीं कर रहे थे, लेकिन सेना को उन्हें मनाने की अनुमति दे दी थी."
लेकिन वाजपेयी ने इस बारे में कोई निश्चित राय नहीं बनाई थी. सोनिया गांधी ने वाजपेयी को एक पत्र लिखकर इस तरह के किसी क़दम का विरोध किया.
यशवंत सिन्हा लिखते हैं, "वाजपेयी ने तुरंत सोनिया गांधी को बैठक के लिए बुला लिया. सोनिया गांधी, प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह और नटवर सिंह के साथ उनसे मिलने आईं. वाजपेयी ने उनके विचारों को बहुत ध्यान से सुना. उन्होंने एनडीए के अपने सहयोगी दलों से भी इस बात पर चर्चा की."
"अधिकतर लोग भारत के इराक़ में सैनिक भेजे जाने के पक्ष में नहीं थे. यहाँ तक कि चिकित्सकीय दल तक भेजे जाने का विरोध किया जा रहा था. यह वाजपेयी के काम करने का तरीक़ा था. उन्होंने सबकी राय ली और आख़िर में वही किया जो देश के हित में था. उनका मानना था कि अपने क़रीबी लोगों के विचारों को दरकिनार करने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि उसके ख़िलाफ़ एक राय बनाई जाए."
वाजपेयी ने इस बारे में दूसरे दलों के सदस्यों से भी राय ली. उन्होंने कम्युनिस्टों को भी बारीक तरीक़े से उकसाया कि वे इसका और ज़ोर-शोर से विरोध करें.
बाद में शिवशंकर मेनन ने एक इंटरव्यू में सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक का विवरण देते हुए बताया, "आडवाणी बैठक में चुप रहे. वाजपेयी ने उनसे सवाल किया, आप क्या सोच रहे हैं? हर कोई भारतीय सैनिकों को भेजने के पक्ष में बोल रहा था. वाजपेयी चुपचाप बैठे थे. उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. फिर एकदम से सन्नाटा छा गया."
"वाजपेयी ने उस सन्नाटे को और बढ़ने दिया. फिर बोले, 'मैं उन माताओं से क्या कहूँगा जिनके बच्चे इस अभियान में मारे जाएँगे?' बैठक में फिर चुप्पी छा गई. वाजपेयी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, 'नहीं, हम अपने लड़कों को वहाँ नहीं भेज सकते'."
जुलाई तक भारत अमेरिका से यही कहता रहा कि पहले इस बारे में उसे संयुक्त राष्ट्र का समर्थन लेना चाहिए. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया. वाजपेयी ने यह कहकर उस मुश्किल से निकलने का रास्ता बनाया कि उनके हाथ बँधे हुए हैं.
साल के अंत में जब यह स्पष्ट हो गया कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के कोई हथियार नहीं हैं, वाजपेयी ने पहली बार सार्वजनिक तौर पर कहा, "हम नहीं चाहते कि हमारे जवान एक मित्र देश में गोलियों का निशाना बनें."
यशवंत सिन्हा ने लिखा, "ऐसा नहीं था कि वाजपेयी अमेरिका से संबंध बेहतर नहीं करना चाहते थे. लेकिन वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत अमेरिका की हर बात माने. उनके लिए संबंधों में बराबरी, पारस्परिकता और परस्पर आदर ज़रूरी था."
"कारगिल की लड़ाई के समय जब बिल क्लिंटन ने वाजपेयी और नवाज़ शरीफ़ को वॉशिंगटन आमंत्रित किया तो वाजपेयी ने वहाँ जाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि जब तक पाकिस्तान का एक भी सैनिक भारत की भूमि पर है, वे अमेरिका नहीं जाएँगे."

इसी तरह एक बार भारत को चीन का भी दबाव झेलना पड़ा. जुलाई 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन का दौरा किया. बातचीत के एजेंडा में सबसे ऊपर था, व्यापार के लिए नाथू ला पास को खोलना.
भारत ने रेनक्विंगगैंग को चीन का हिस्सा मान लिया था, लेकिन चीन को नाथू ला को सिक्किम यानी भारत का हिस्सा मानने में दिक़्क़त हो रही थी. ब्रजेश मिश्रा और दूसरे भारतीय राजनयिकों ने चीन को मनाने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया, लेकिन सफलता नहीं मिली.
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, "समस्या को हल करने के उद्देश्य से वाजपेयी ने संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसे विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने पसंद नहीं किया. जब प्रेस ने उनसे इस बारे में सवाल किया तो उन्होंने इस बात का खंडन किया कि उन्होंने भारत के हितों से समझौता किया है."
"दोनों देश एक-दूसरे के इरादों पर सशंकित ज़रूर रहे. सीमा के दूसरे इलाक़ों पर विवाद बरकरार रहे, लेकिन जल्द ही चीन ने अपने नक्शों में सिक्किम को भारत का हिस्सा दिखाना शुरू कर दिया."
उधर पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने में भी वाजपेयी ने पहल की. कारगिल में जंग के बावजूद उन्होंने कश्मीर यात्रा के दौरान बिना तैयारी के बोलते हुए कहा, "हम आपका दुख और तकलीफ़ बाँटने आए हैं."
उन्होंने कहा, "वक्त का तक़ाज़ा है कि कश्मीरी लोग पुरानी बातें भूलकर इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत पर चलें."
अगले दिन कश्मीर विश्वविद्यालय के एक समारोह में उन्होंने कहा, "अगर पाकिस्तान आज घोषणा कर दे कि उसने सीमा-पार के आतंकवाद को तिलांजलि दे दी है, तो मैं कल ही विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी को इस्लामाबाद भेज दूँगा."
इराक़ युद्ध का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, "अब और भी ज़रूरी हो गया है कि हम बातचीत से अपने मतभेद सुलझा लें."
इस घोषणा के दस दिन बाद पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री ज़फ़रुल्लाह जमाली ने वाजपेयी को फ़ोन कर ट्रेन, बस और हवाई सेवाएँ बहाल करने और दोनों देशों के उच्चायोगों को पुराने स्तर पर लाने की पेशकश की. यहीं से दोनों देशों के बीच संवादहीनता की स्थिति समाप्त होनी शुरू हो गई.

जनवरी 2004 में पाकिस्तान के इस्लामाबाद में होने वाले सार्क सम्मेलन का एलान हुआ तो वाजपेयी ने संकेत दिया कि वे वहाँ जाना चाहेंगे, बशर्ते पाकिस्तान औपचारिक रूप से सीमा-पार 'आतंकवाद' समाप्त करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाए.
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त और बाद में विदेश सचिव बने शिवशंकर मेनन ने बताया, "मुशर्रफ़ को अंदाज़ा था कि अगर वाजपेयी उस शिखर सम्मेलन में नहीं आते तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाएगा. हम उनसे आख़िरी मिनट तक कहते रहे कि अगर पाकिस्तान हमारी बात नहीं मानता तो वाजपेयी अपनी जगह किसी और को पाकिस्तान भेज देंगे. आख़िर में पाकिस्तान को हमारी बात माननी पड़ी."
दिल्ली से वाजपेयी की बीएमडब्ल्यू कार इस्लामाबाद ले जाई गई. उसी पर बैठकर उन्होंने हवाई अड्डे से होटल तक का आधे घंटे का रास्ता तय किया. मुशर्रफ़ से बातचीत में वाजपेयी ने शिकायत की कि भारत में लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं, जिसकी वजह से उनके लिए चुनावी वर्ष में किसी वक्तव्य पर दस्तख़त करना मुश्किल होगा.
जनरल मुशर्रफ़ ने तब चरमपंथियों के ख़िलाफ़ उठाए जाने वाले क़दमों की जानकारी दी.
अभिषेक चौधरी लिखते हैं, "9/11 के बाद पश्चिमी देश कश्मीर में पृथकतावाद को विदेश नीति का उपकरण बनाने के पक्ष में नहीं थे. अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव डाल रहा था कि वह अपनी तरफ़ से आतंकवाद का नल बंद कर दे. कुछ हफ़्ते पहले चीन की यात्रा के दौरान भी मुशर्रफ़ को सलाह दी गई थी कि वे भारत के साथ बातचीत करें. ऐसा चीन के साथ व्यापार समझौता करने में वाजपेयी की भूमिका के कारण संभव हो सका था."
जब भारत और पाकिस्तान के अधिकारी संयुक्त वक्तव्य के मसौदे पर काम कर रहे थे तो पाकिस्तानी मसौदे की एक लाइन पर भारत ने आपत्ति जताई.
वह लाइन थी, "पाकिस्तान की भूमि का इस्तेमाल आतंकवाद के समर्थन के लिए नहीं किया जाएगा."
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया अपनी किताब 'एंगर मैनेजमेंट' में लिखते हैं, "भारत का ज़ोर था कि मसौदे में 'पाकिस्तानी भूमि' की जगह 'पाकिस्तानी नियंत्रण वाली भूमि' शब्द का इस्तेमाल किया जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि इसमें पाकिस्तानी नियंत्रण वाले कश्मीर को शामिल किया जाएगा."
"शिवशंकर मेनन ने तारिक़ अज़ीज़ को फ़ोन कर भारत की आपत्ति बताई. उस समय अज़ीज़ संयोग से मुशर्रफ़ के पास बैठे थे. मुशर्रफ़ ने सेकंडों में भारत की आपत्ति दूर कर दी."
"अज़ीज़ ने तब रियाज़ खोखड़ को फ़ोन कर पंजाबी में कहा कि दस्तावेज़ में भारत की इच्छानुसार परिवर्तन कर दिए जाएँ. इस बैठक में भारत ने वह हासिल कर लिया था जो वह कुछ साल पहले हुई आगरा और लाहौर बैठकों में नहीं कर पाया था."
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