दिसंबर, 1954 में यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो भारत की यात्रा पर आए तो जिस तरह से मध्य प्रदेश में कोटरी की विधायक मैमूना सुल्तान ने उनका स्वागत किया, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उसी समय तय किया कि मैमूना को विधानसभा में नहीं बल्कि लोकसभा में होना चाहिए.
सन 1957 में भोपाल से टिकट दिए जाने के बाद मैमूना न सिर्फ़ वहाँ से चुनाव जीतीं बल्कि उन्हें कांग्रेस पार्टी के विदेशी मामलों की समिति का अध्यक्ष भी बनाया गया.
यही नहीं, सन 1958 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा को भी संबोधित किया.
टीवी की मशहूर न्यूज़रीडर सलमा सुल्तान की बड़ी बहन मैमूना ने दो बार लोकसभा में भोपाल का प्रतिनिधित्व किया. उसके बाद वो 12 सालों तक राज्यसभा की सदस्य भी रहीं.
हाल ही में रशीद किदवई और अंबर कुमार घोष की किताब प्रकाशित हुई है 'मिसिंग फ़्रॉम द हाउस, मुस्लिम विमेन इन द लोकसभा' जिसमें उन्होंने मैमूना सुल्तान के अलावा उन 17 मुस्लिम महिला सांसदों के जीवन पर नज़र दौड़ाई है, जिन्होंने लोकसभा चुनाव जीता है.
लोकसभा में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्वरशीद क़िदवई और अंबर कुमार घोष लिखते हैं, "सन 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव से अब तक सिर्फ़ 18 मुस्लिम महिलाएं लोकसभा में पहुच सकी हैं. ये देखते हुए कि देश की कुल आबादी में तकरीबन सात फ़ीसदी हिस्सा मुस्लिम महिलाओं का है. अब तक हुए 18 लोकसभा चुनावों में पाँच बार ऐसा हुआ कि एक भी मुस्लिम महिला लोकसभा में नहीं पहुंच सकी."
सन 1951 से अब तक चुने गए तकरीबन साढ़े सात हज़ार सांसदों में मुस्लिम महिलाओं की तादाद 0.6 फ़ीसदी रही है.
पहली महिला मुस्लिम सांसदलोकसभा की पहली मुसलमान महिला सांसद मोफ़ीदा अहमद थीं जो सन 1957 में असम में जोरहाट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं.
वो सन 1962 में ये सीट हार गईं थीं, जब प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के राजेंद्रनाथ बरुआ ने उन्हें मात्र 907 वोटों से हराया था.
मोफ़ीदा अहमद तब सुर्ख़ियों में आईं, जब 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय उन्होंने अपने सारे गहने राष्ट्रीय सुरक्षा फ़ंड में दान कर दिए थे.
सन 1962 मे गुजरात के बनासकांठा संसदीय क्षेत्र से ज़ोहराबेन अकबरभाई चावड़ा ने लोकसभा का चुनाव जीता था.
ज़ोहराबेन महात्मा गाँधी की शिष्या थीं. उन्होंने गुजरात विद्यापीठ में काम किया था, जिसे महात्मा गांधी ने स्थापित किया था.
उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर भील आदिवासी समुदाय की सेवा के लिए सन 1948 में सर्वोदय आश्रम की स्थापना की थी.
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कश्मीर के नेता शेख़ अब्दुलाह की पत्नी बेगम अकबर जहां दो बार सांसद बनी थीं. पहली बार सन 1977 में श्रीनगर से और फिर 1984 में अनंतनाग से.
उनको कश्मीर में अब तक 'मादर-ए-मेहरबान' कह कर याद किया जाता है. जब 2000 में उनका निधन हुआ था तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी उनके अंतिम संस्कार में भाग लेने श्रीनगर पहुंचे थे.
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी उनकी मृत्यु पर शोक व्यक्त किया था. शेख अब्दुल्लाह की गिरफ़्तारी के दौरान वह दो साल तक कोडईकोनाल में उनके साथ रही थीं.
1977 में पूर्व मंत्री मोइन-उल-हक़ चौधरी की पत्नी रशीदा हक़ चौधरी सिलचर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं.
आज़ादी के बाद वह पहली महिला मुस्लिम मंत्री बनीं, जब 1979 मे चरण सिंह ने उन्हें समाज कल्याण राज्य मंत्री के तौर पर अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था.
जब देवराज अर्स ने इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ विद्रोह किया तो वह अर्स कांग्रेस में शामिल हो गईं लेकिन जब 1980 में रशीदा ने दोबारा सिलचर से चुनाव लड़ा तो वह इंदिरा कांग्रेस के संतोष मोहन देव से चुनाव हार गईं.
मोहसिना किदवई और आज़मगढ़ का उपचुनाव
1977 में इंदिरा गांधी की लोकसभा चुनाव में हार के बाद सत्ता में उनकी वापसी का पहला संकेत मिला आज़मगढ़ से. इस उप-चुनाव में इंदिरा कांग्रेस की उम्मीदवार थीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहीं मोहसिना क़िदवई. सत्ता से बाहर हो चुकीं इंदिरा गांधी ख़ुद उनका चुनाव प्रचार करने आज़मगढ़ गई थीं.
मोहसिना किदवई ने बीबीसी से बात करते हुए इंदिरा गांधी का एक क़िस्सा सुनाया था, "उस ज़माने में आज़मगढ़ बहुत पिछड़ी हुई जगह थी. आज भी है. न कोई रेस्तराँ, न कोई ठहरने लायक होटल था.
मोहसिना बताती हैं, "मैंने इंदिराजी के लिए सरकारी गेस्ट हाउस में एक कमरा बुक कराया था, मगर अटेंडेंट ने कमरा खोलने से इनकार करते हुआ कहा, 'यहाँ मिनिस्टर साहब ठहरेंगे. उनका हुक्म है कि कमरा किसी के लिए न खोला जाए. जब कमरा खुलवाने की सारी कोशिश नाकाम हो गई तो मैंने उससे कहा, 'तुम्हें मालुम है, को आवा है ?' वो बोला 'नहीं.' मैंने कहा कि कार में इंदिरा गांधी बैठी हैं. जैसे ही उसने ये सुना उसने लपककर कमरे का दरवाज़ा खोला. मंत्री को एक भद्दी-सी गाली दी और बोला 'नौकरी जाए तो जाए...'
इसके बाद मोहसिना किदवई ने मेरठ से 1980 और 1984 का चुनाव भी जीता.
वो राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में शहरी विकास मंत्री रहीं. बाद में वो छत्तीसगढ़ से राज्यसभा की सांसद भी चुनी गईं.
आबिदा बेगम बनी बरेली से सांसद1981 में जब बरेली के सांसद मिसरयार ख़ाँ की मृत्यु हुई तो इंदिरा गांधी ने दिवंगत राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अहमद की पत्नी आबिदा बेगम को वहाँ से लड़ने के लिए कांग्रेस का टिकट दिया.
आबिदा ने बीजेपी के संतोष गंगवार को हराकर लोकसभा में प्रवेश किया. 1984 के चुनाव में भी आबिदा की जीत हुई. 1989 में चुनाव में हार के साथ आबिदा का राजनीतिक जीवन भी उतार पर आ गया.
1990 के दशक में एक और महिला सांसद नूर बानो ने लोकसभा में प्रवेश किया.
रशीद किदवई और अंबर कुमार घोष लिखते हैं, "हमेशा सफ़ेद शिफ़ॉन की साड़ी, पूरी आस्तीन का ब्लाउज़ और सफ़ेद मोतियों की माला पहनने वाली नूर बानो एक राजनीतिक परिवार से आती थीं.
उनके पति नवाब सैयद ज़ुल्फ़िकार अली ख़ाँ उर्फ़ मिकी मियाँ 1967 से लेकर 1989 तक रामपुर का प्रतिनिधित्व कर चुके थे. बीच में 1977 का चुनाव वो ज़रूर हार गए थे. मिकी मियाँ उन गिने-चुने पूर्व नवाबों में थे, जिन्होंने इंदिरा गांधी के प्रिवी पर्स हटाने के फ़ैसले का स्वागत किया था.
रामपुर सीट पहली बार चर्चा में तब आई थी जब भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद ने सन 1952 में यहाँ से चुनाव लड़ा था.
मिकी मियाँ की मृत्यु के बाद 1996 के चुनाव में नूर बानो पहली बार रामपुर से कांग्रेस के टिकट पर जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं.
लेकिन 2004 में अभिनेत्री जयाप्रदा से हार के बाद उनका राजनीतिक करियर उतार पर आ गया था.
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2004 के चुनाव में रुबाब सईदा उत्तर प्रदेश से चुनाव जीतने वाली अकेली महिला मुस्लिम सांसद थीं.
वह बहराइच से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीती थीं लेकिन 2009 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने उन्हें उनकी पुरानी सीट से चुनाव न लड़ा कर श्रावस्ती से चुनाव लड़वाया था. इस चुनाव में उनकी हार हुई थी.
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री रही महबूबा मुफ़्ती भी लोकसभा की सदस्य रह चुकी हैं.
सन 2014 में वो अनंतनाग से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं. अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह सीधे राजनीति में नहीं उतरीं.
रशीद किदवई और अंबर कुमार घोष लिखते हैं, "महबूबा ने कुछ समय तक बॉम्बे मर्केंटाइल बैंक और ईस्ट वेस्ट एयरलाइंस में काम किया. 1984 में जावेद इक़बाल शाह से उनका विवाह हो गया. उनसे उनकी दो बेटियाँ पैदा हुईं, इरतिक़ा और इल्तिजा लेकिन उनकी शादी बहुत दिनों तक नहीं चली. इंदिरा गांधी की तरह उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की परवरिश करने के साथ-साथ अपने पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद के राजनीतिक करियर में हाथ बँटाया. अक्तूबर, 2023 में उन्हें चौथी बार पीडीपी का अध्यक्ष चुना गया."
तबस्सुम हसन और मौसम बेनज़ीर नूर की राजनीतिक विरासतमई, 2018 में उत्तर प्रदेश में कैराना में हुए उप-चुनाव में जब राष्ट्रीय लोक दल की तबस्सुम हसन की जीत हुई. उनको समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस का समर्थन हासिल था. इससे पहले वो 2009 में बीएसपी के टिकट से इसी सीट पर जीत चुकी थीं.
2019 की मोदी लहर में वह बीजेपी के उम्मीदवार से चुनाव हार गईं.
पश्चिम बंगाल में मालदा के मशहूर राजनीतिक परिवार से जुड़ी मौसम बेनज़ीर नूर दो बार कांग्रेस के टिकट पर मालदा उत्तर सीट जीतकर लोकसभा में पहुंची थीं.
2019 के लोकसभा चुनाव से तुरंत पहले नूर तृणमूल कांग्रेस में चली गई थीं और उन्होंने अपने चचेरे भाई इशा ख़ाँ चौधरी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था. वोट बँट जाने के कारण दोनों चुनाव हार गए थे और बीजेपी के खगेन मुर्मू लोकसभा में पहुंचे थे.
मायावती ने सीतापुर से क़ैसर जहां को टिकट दिया
2009 के चुनाव में बीएसपी सुप्रीमो और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती सीतापुर सीट से एक अच्छे उम्मीदवार की तलाश में थीं. उन्होंने अपने एक विधायक मोहम्मद जसमीर अंसारी को लखनऊ तलब किया. जसमीर अपनी पत्नी कैसर जहाँ के साथ उनसे मिलने पहुंचे.
रशीद क़िदवई और अंबर कुमार घोष लिखते हैं, "जसमीर उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें मंत्री बनाया जाएगा लेकिन मायावती ने उनसे सीतापुर से चुनाव लड़ने के लिए कहा. जसमीर थोड़ा झिझके. उन्होंने अपनी पत्नी का तरफ़ देखा. मायावती उनकी परेशानी ताड़ गईं. उन्होंने उनकी पत्नी कैसर जहां से ही सीधा सवाल कर डाला, 'तू लड़ेगी?'
पति-पत्नी दोनों ने एक स्वर में जवाब दिया, 'हाँ.' 35 दिन के चुनाव प्रचार के बाद कैसर जहाँ ने पूर्व केंद्रीय मंत्री रामलाल राही और समाजवादी पार्टी के महेंद्र सिंह वर्मा को हरा कर लोकसभा में प्रवेश किया.
कैसर ने 2014 का चुनाव भी लड़ा. उनको मिले वोटों की संख्या भी बढ़ी लेकिन वो बीजेपी के राजेश वर्मा से चुनाव हार गईं.
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2014 में तृणमूल कांग्रेस ने कलकत्ता हाइ कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रहे नूर आलम चौधरी की पत्नी मुमताज़ संघामिता को टिकट दिया. वो बर्दवान-दुर्गापुर सीट से चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचीं.
2018 में उलूबेरिया से तृणमूल सांसद सुल्तान अहमद की मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी ने उनकी पत्नी साजदा अहमद को टिकट दिया. अगले दो चुनावों 2019 और 2924 में भी साजदा ने उसी सीट से जीत हासिल की.
भारतीय राजनीति में बहुत कम महिलाएं हैं जो खेलों में नाम कमाने के बाद राजनीति में आई हैं.
रानी नारा उनमें से एक हैं. 2012 में मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में उन्हें जनजातीय मामलों के राज्य मंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई थी.
रानी जानी-मानी ऑलराउंडर थीं और उन्होंने असम की राज्य क्रिकेट टीम का नेतृत्व किया था. रानी असम में लखीमपुर सीट जीत कर लोकसभा में पहुंची थीं. बाद में वो राज्यसभा की सदस्य भी रहीं.
लंदन में पढ़ी इक़रा हसनतृणमूल कांग्रेस ने बंगाली सिनेमा की सुपरस्टार नुसरत जहाँ रूही को भी टिकट दिया और वो 2019 में बशीरहाट चुनाव क्षेत्र से साढ़े तीन लाख वोटों से चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचीं.
लोकसभा में उनकी ग़ैर-हाज़िरी को लेकर काफ़ी आलोचना हुई. उनकी उपस्थिति सिर्फ़ 22 फ़ीसदी रही और उन्होंने सिर्फ़ 11 बहसों में भाग लिया.
18वीं लोकसभा में कैराना से चुनी गईं इक़रा हसन. समाजवादी पार्टी के टिकट से जीतीं इक़रा एक तो सबसे युवा सांसदों में से एक थीं. उन्होंने लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ से अंतरराष्ट्रीय राजनीति और क़ानून की डिग्री ली है.
इससे पहले वह दिल्ली के मशहूर लेडी श्रीराम कालेज से पढ़ चुकी हैं. अपने भाषणों और लोकसभा में सक्रिय भूमिका से उन्होंने राजनीतिक विश्लेषकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है.
इक़रा एक राजनीतिक परिवार से आती हैं. उनके दादा चौधरी अख़्तर हसन 1984 में अपना पहला चुनाव लड़ रही मायावती को हराकर कांग्रेस के टिकट पर कैराना से ही जीते थे.
उनके पिता मुनव्वर हसन 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत कर लोकसभा में पहुंचे थे. बाद में वो बहुजन समाज पार्टी में चले गए थे.
उनकी माँ तबस्सुम हसन भी कैराना से सांसद रह चुकी हैं. उनके भाई नाहीद हसन समाजवादी पार्टी के विधायक हैं.
अधिकतर महिला सांसद राजनीतिक परिवारों सेइन 18 महिला मुस्लिम सांसदों में से 13 राजनीतिक परिवारों से आती हैं. इनमें से अधिकतर महिलाएं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम से हैं. देश के अन्य राज्यों से उनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है.
और ये तब है, जब भारत में कम-से-कम 101 सीटों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 फ़ीसदी से अधिक है.
75 सालों में मात्र 18 मुस्लिम महिलाओं का लोकसभा में पहुंचना महिला सशक्तीकरण और राजनीति में महिलाओं की सहभागिता पर बड़े सवाल पैदा करता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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