राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने दो अक्तूबर को विजयादशमी के मौक़े पर नागपुर में अपना सालाना भाषण दिया.
संघ ने इस साल अपनी स्थापना के सौ साल पूरे कर लिए हैं. इसलिए इस बार का भाषण भी ख़ास था.
मोहन भागवत ने अपने भाषण में पहलगाम हमले, नक्सलवाद और अमेरिकी टैरिफ़ जैसे मुद्दों पर बात की. साथ ही उन्होंने भारत के पड़ोसी देशों में अस्थिरता का ज़िक्र भी किया.
भागवत ने क्या-क्या कहा और उसके क्या मायने हैं, आइए समझते हैं.
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पहलगाम हमला और नक्सलवादअपने भाषण के शुरू में ही मोहन भागवत ने पहलगाम हमले की बात की.
उन्होंने कहा, "एक दुर्घटना पहलगाम की भी हुई. हमला हुआ सीमा पार के आतंकियों के द्वारा. छब्बीस भारतीय नागरिकों की उनका धर्म पूछकर हत्या की. लेकिन उसके चलते सारे देश में प्रचंड दुख और क्रोध की लहर पैदा हुई. पूरी तैयारी करके सरकार ने, हमारी सेना ने उसका बहुत पुरज़ोर उत्तर दिया."
भागवत ने कहा, "सारे प्रकरण में हमारे नेतृत्व की दृढ़ता, हमारी सेना का शौर्य, कौशल्य और समाज की एकता और दृढ़ता का एक उत्तम चित्र प्रस्थापित हुआ. वह घटना हमको सिखा गई कि यद्यपि हम सबके प्रति मित्रभाव रखते हैं और रखेंगे, फिर भी अपने सुरक्षा के विषय में हमको अधिकाधिक सजग रहना पड़ेगा. समर्थ बनना पड़ेगा क्योंकि इस घटना के बाद दुनिया में विभिन्न देशों ने अपनी-अपनी जो भूमिका ली, उसमें हमारे यह भी ध्यान में आया कि हमारे मित्र कौन कौन हैं और कहाँ तक हैं."
इसके बाद भागवत ने बात की 'नक्सलवाद' की.
उन्होंने कहा, "देश के अंदर भी अशांति फैलाने वाले संविधान विरोधी उग्रवादी नक्सली आंदोलन पर शासन और प्रशासन की दृढ़ कार्रवाई भी हुई. और उनके अनुभव से उनकी विचारधारा का खोखलापन और उनकी क्रूरता का अनुभव होने के कारण समाज भी उनसे मोहभंग होने के कारण विमुख हो गया."
भागवत ने कहा, "लेकिन उनका नियंत्रण तो हो जाएगा. परन्तु उस क्षेत्र में जो बड़ी बाधा थी, वह दूर होने के बाद उस क्षेत्र में न्याय की स्थापना हो, विकास वहाँ तक पहुँचे, सद्भावना, संवेदना और सामरस्य वहाँ स्थापित हो, इसके लिए समाज की भी और शासन-प्रशासन की भी योजनाएँ चलानी होंगी क्योंकि इनका अभाव ही ऐसी उग्रवादी ताक़तों के पनपने का कारण बनती हैं."
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इसके बाद मोहन भागवत ने भारत के पड़ोसी देशों में हुई हालिया उथल-पुथल की बात की.
उन्होंने कहा, "प्राकृतिक उथल-पुथल है तो जन-जीवन में भी उथल-पुथल दिख रही है. श्रीलंका में, उसके बाद बांग्लादेश और फिर नेपाल में... हमारे पड़ोसी देशों में भी हमने इसका अनुभव किया. कभी-कभी होता है... प्रशासन जनता के पास नहीं रहता, संवेदनशील नहीं रहता, लोकाभिमुख नहीं रहता... जनता की अवस्थाओं को ध्यान में रख कर नीतियाँ नहीं बनतीं, तो असंतोष रहता है. परंतु उस असंतोष का इस प्रकार व्यक्त होना, यह किसी के लाभ की बात नहीं है."
भागवत ने यह भी कहा, "प्रजातांत्रिक मार्गों से भी परिवर्तन आता है. ऐसे हिंसक मार्गों से परिवर्तन नहीं आता है. एक उथल-पुथल हो जाती है लेकिन स्थिति यथावत रहती है."
साथ ही उन्होंने कहा कि अगर दुनिया का इतिहास देखा जाए तो जब से "ये उथल-पुथल वाले तथाकथित रिवॉल्यूशन (क्रांतियाँ) आए" तो किसी क्रांति ने अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया. उन्होंने कहा, "ऐसे हिंसक परिवर्तनों से उद्देश्य नहीं प्राप्त होता है. उलटा इस अराजकता की स्थिति में देश के बाहर की स्वार्थी ताक़तों को अपने खेल खेलने का मौक़ा मिलता है."
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हाल ही में नेपाल में एक हिंसक प्रदर्शन हुआ. इसकी अगुवाई जेनरेशन ज़ी या 'जेन ज़ी' ने की.
संघ प्रमुख मोहन भागवत बिना किसी का नाम लिए इस पीढ़ी की सोच पर भी सवाल उठाते दिखे. उन्होंने कहा, "एक उलटी और घातक विचारधारा लेकर चलने वाला एक नया पंथ उदय में बहुत पहले आया. आजकल वह भारत में भी अपने हाथ-पैर फैलाने की कोशिश कर रहा है."
उन्होंने कहा, "सभी देशों में उसके कारण जो सामाजिक जीवन की अस्त-व्यस्त अवस्था हुई है और एक तरह से अराजकता की ओर सारा समाज बढ़ रहा है. ऐसी संभावना दिखती है उसका अनुभव सब देशों में हो रहा है. और इसलिए इन सारी परिस्थितियों को लेकर विश्व जब पुनर्चिंतन करता है तो वह भारत की ओर अपेक्षा से देखता है. भारत इसका कोई उपाय निकाले, ऐसी विश्व में भी अपेक्षा है."
भागवत ने कहा, "सौभाग्य से भारत में एक आशा की किरण ये दिखाई देती है कि नई पीढ़ी में देशभक्ति की भावना, अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास का प्रमाण निरंतर बढ़ा है."
भागवत के इस भाषण के क्या मायने हैं?
नीलांजन मुखोपाध्याय एक पत्रकार, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक हैं. इन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रमुख हस्तियों पर किताबें लिखी हैं.
वह कहते हैं, "भारत के पड़ोस में एक विद्रोह हुआ है. सरकार के भीतर और यहाँ तक कि आरएसएस के भीतर भी यह समझ आ गई है कि आर्थिक रूप से यह सरकार पूरी तरह विफल रही है. बेरोज़गारी का स्तर अपने उच्चतम स्तर पर है.''
''भारत में लोग भूखे मर जाते अगर सरकार ने कोविड के बाद मुफ़्त राशन बाँटने का फ़ैसला न लिया होता. इतनी बड़ी संख्या में लोग सरकार द्वारा बाँटे जा रहे मुफ़्त भोजन पर निर्भर हैं. यह सरकार के प्रदर्शन सूचकांक को बहुत अच्छा नहीं दिखाता."
तो क्या यह कहना सही होगा कि कहीं यह चिंता है कि जैसा नेपाल में हुआ, वैसा ही कुछ भारत में भी हो सकता है?
इस पर नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "हाँ, निश्चित रूप से यह चिंता है कि किसी भी समय एक विद्रोह हो सकता है. हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि पिछले साल लोकसभा चुनावों के दौरान कुछ सर्वेक्षणों में लोगों के बीच बेचैनी पाई गई थी. इसकी वजह थी, रोज़मर्रा की ज़रूरतें- रोटी, कपड़ा, मकान- और सबसे महत्वपूर्ण बेरोज़गारी."
लेखिका और राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामसेशन का मानना है कि जैसी उथल-पुथल भारत के पड़ोसी देशों में हुई, वैसा भारत में होना बहुत मुश्किल है. लेकिन मोहन भागवत ने 'जेन ज़ी' से जुड़ी जो बात की है, उसके गहरे मायने हैं.
वह कहती हैं, "भागवत ने चिंता ज़रूर ज़ाहिर की है. देखिए, अब नरेंद्र मोदी की सरकार को काफ़ी साल हो गए हैं. अभी चुनाव के लिए वक़्त है लेकिन आरएसएस का नेटवर्क इतना फैला हुआ है कि उनको हर दिन फ़ीडबैक मिलता होगा. उन्हें पता चलता होगा कि कहाँ लोग संतुष्ट हैं और कहाँ हालात चिंताजनक हैं.''
''आने वाले वक़्त में कई चुनाव भी आ रहे हैं. तो कहीं न कहीं मुझे लगता है कि संघ को भी फ़ीडबैक आया होगा कि जो युवा हैं, उनमें असंतोष पैदा हो रहा है. मुख्य मुद्दा बेरोज़गारी का है जिसकी वजह से कुछ इलाक़ों से पलायन होता है. तो बीजेपी सरकार को मोहन भागवत एक संकेत दे रहे हैं कि वह अपनी आँखें खुली रखे और सतर्क रहे."
अपने भाषण में मोहन भागवत ने धार्मिक सहिष्णुता का ज़िक्र भी किया.
मुसलमान और ईसाई समुदायों की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि भारत पर हमले हुए और विदेशी भारत में आ गए. अलग-अलग वजहों से भारत के लोगों ने भी उनकी विचारधारा और उनके पंथ-संप्रदायों को स्वीकार किया.
भागवत ने कहा, "वे विदेशी चले गए. लेकिन अभी भी उनका (धर्म) स्वीकार कर के रहने वाले हमारे अपने बंधु देश में हैं. सौभाग्य से भारत की परंपरा है कि वह सब प्रकार की विविधताओं का स्वागत और सम्मान और स्वीकार करती है. और इसलिए बाहर से आई विचारधारा को हम पराया नहीं मानते, अलगाव से नहीं देखते."
भागवत ने कहा कि लोगों को एक-दूसरे के प्रति सद्भावना और संयम से भरा होना चाहिए. उन्होंने कहा, "छोटी-बड़ी बातों पर या केवल मन में संदेह है, इसलिए क़ानून हाथ में लेकर रास्तों पर निकल आना, गुंडागर्दी, हिंसा करना, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है. मन में प्रतिक्रिया रख कर अथवा किसी समुदाय विशेष को उकसाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करना. ऐसी घटनाओं को योजनापूर्वक करवाया जाता है."
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संघ और उससे जुड़े कुछ संगठनों पर अक्सर धार्मिक असहिष्णुता फैलाने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे में मोहन भागवत के इस बयान को कैसे देखा जाए?
इस सवाल पर नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि अल्पसंख्यकों को निशाना नहीं बनाया जा रहा है. कुछ-कुछ समय में हमें ऐसी ख़बरें सुनने को मिलती हैं, जहाँ मुसलमानों को पीटा गया है. तो ऐसे में भागवत के इस तरह के बयान देने का कोई विशेष महत्व नहीं रह जाता. उन्होंने पहले भी ऐसे बयान दिए हैं. लेकिन जब ऐसी घटनाएँ होती हैं तब सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती."
वह कहते हैं, "आरएसएस उन लोगों के ख़िलाफ़ कोई क़दम क्यों नहीं उठाता, जो उनके तंत्र का हिस्सा हैं? आरएसएस क्यों नहीं यह कहता कि अब से हम इनसे कोई संबंध नहीं रखेंगे और ये लोग आरएसएस से जुड़े किसी भी मंच का उपयोग नहीं कर पाएँगे?''
''वे इस तरह के दिशा-निर्देश जारी नहीं करते. इसलिए ये लोग उनके सिस्टम का हिस्सा बने रहते हैं. जब संघ को फ़ायदा होता है, तब वह उनका इस्तेमाल करता है."
राधिका रामसेशन का कहना है कि इस तरह की बातें करने से पहले आरएसएस प्रमुख को विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसी इकाइयों को पाठ पढ़ाना चाहिए.
वह कहती हैं, "धार्मिक सहिष्णुता की बात करने से पहले संघ को अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिए. उसे विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दाल को समझाना चाहिए कि वे छोटी-छोटी बातों को बहाना बना कर अल्पसंख्यकों पर हमले न करे."
वह कहती हैं कि जहाँ तक भारत के लोगों की दूसरे धर्मों को अपनाने की बात है तो इसकी वजह हिन्दू धर्म में जाति के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव है. उनके मुताबिक़ आज भी ऐसे लोग हैं जो न कुएँ से पानी भर सकते हैं, न मंदिर के अंदर जा सकते हैं, वे खेत में काम तो कर सकते हैं लेकिन फसल उनको नहीं मिलेगी.
राधिका रामसेशन के मुताबिक़, "संघ को इन लोगों को सिर्फ़ एक वोट बैंक न समझ कर इन्हें अपनाने की कोशिश करनी चाहिए."

पिछले कुछ सालों से आरएसएस प्रमुख के विजयादशमी पर दिए गए भाषण में उठाई गई बातों को केंद्र सरकार के लिए एक संदेश के तौर पर भी देखा जाता रहा है. लेकिन इस बार के भाषण से ऐसा नहीं लगा.
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से आरएसएस की तारीफ़ की थी. अपने सौ साल पूरे करने पर क्या संघ का रुख़ बीजेपी की तरफ़ नरम पड़ता दिख रहा है?
इस पर राधिका रामसेशन कहती हैं, "मोदी जैसे प्रधानमंत्री आरएसएस को जल्दबाज़ी में नहीं मिलने वाले हैं. वह आरएसएस का एजेंडा पूरी तरह से पूरा कर रहे हैं. इतने साल वह ख़ुद प्रचारक रहे हैं. तो अगर वह आरएसएस को नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा. उन्हें पता है कि संघ की क्या अपेक्षाएँ हैं और कहाँ लकीर खींचनी है."
उनके मुताबिक़, आरएसएस की भूमिका एक समन्वयक की है.
वह कहती हैं, "हर मीटिंग में संघ यही संकेत देता है कि बीजेपी सरकार को संघ की तरफ़ से कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए और ये सरकार चलनी चाहिए. संघ का रुख़ यही है कि बीजेपी को कोई चेतावनी या कोई चुनौती सार्वजनिक तौर पर न दी जाए."
दूसरी ओर, नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, "मुझे लगता है कि मोहन भागवत ने तय किया कि यह मंच उन मुद्दों को सुलझाने का अवसर नहीं है जो संघ और बीजेपी के बीच चल रहे हैं. आरएसएस को इस बात से कोई समस्या नहीं है कि भाजपा और मोदी सरकार ने वास्तव में उनकी अपेक्षाओं से कहीं अधिक काम किया है.''
उनके मुताबिक़, ''वे तीन विवादास्पद मुद्दों से कहीं आगे निकल गए हैं- राम मंदिर बन चुका है, अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया है और समान नागरिक संहिता की शुरुआत विभिन्न राज्यों से हो चुकी है."
नीलांजन कहते हैं, "आरएसएस के वैचारिक उद्देश्य काफ़ी हद तक सरकार द्वारा, और व्यक्तिगत रूप से प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लागू किए जा रहे हैं और पूरे किए जा रहे हैं. फिर भी आरएसएस और भाजपा के बीच एक तरह की दूरी बनी हुई है.''
''पिछले लोकसभा चुनावों में आरएसएस पहले जितना सक्रिय नहीं था. फिर चुनाव परिणामों ने दिखाया कि भाजपा बहुमत हासिल नहीं कर सकी. और हम सबने यह निष्कर्ष निकाला कि इसका एक कारण यह भी था कि आरएसएस के कार्यकर्ताओं की रुचि कम हो गई थी."
नीलांजन याद दिलाते हैं, "जेपी नड्डा का बयान आया था कि अब बीजेपी को आरएसएस की ज़रूरत नहीं है. लेकिन आरएसएस ने दिखा दिया कि किसे किसकी ज़रूरत है. बीजेपी अभी भी चुनावी राजनीति में आत्मनिर्भर नहीं है. उसे आरएसएस की मदद की ज़रूरत है.''
''लेकिन भागवत ने इस बारे में कोई बात नहीं की. यहाँ तक कि परोक्ष रूप से भी नहीं. पहले कई भाषणों में उन्होंने मोदी पर कटाक्ष किए थे. अब ऐसा कुछ नहीं कहा गया. तो पुराने मुद्दे जस के तस हैं."
नीलांजन मुखोपाध्याय का कहना है कि उन्हें उम्मीद थी कि संघ के सौ साल पूरे होने पर अपने भाषण में संघ प्रमुख कुछ पीछे मुड़कर देखने की बात करेंगे.
वह कहते हैं, "मुझे उम्मीद थी कि इस भाषण में कुछ पुराने विचारों का पुनर्मूल्यांकन होगा. कुछ विचारों को पीछे छोड़ने की कोशिश होगी. जैसे, कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि गोलवलकर की लेखनी एक विशेष ऐतिहासिक संदर्भ में लिखी गई थी. इसलिए अब उसकी प्रासंगिकता कम हो गई है."
वह कहते हैं, "इसलिए मुझे उम्मीद थी कि इस बार विजयादशमी के हर साल के भाषण से कुछ अधिक ठोस बात सामने आएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उन्होंने वही बातें दोहराईं जो वह पहले भी किसी न किसी अवसर पर कह चुके हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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